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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
षष्टम अध्ययन [56]
|| षष्टम अध्ययन : क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय ||
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन का नाम क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय है। यहाँ 'क्षुल्लक' का अभिप्राय नवदीक्षित अथवा लघु-मुनि व शिष्य है और 'निर्ग्रन्थ' शब्द श्रमण-साधु का वाचक है।
निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग जैनधर्म के लिये अति प्राचीनकाल से होता रहा है। भगवान महावीर को निग्गंठ नायपुत्ते कहा गया तथा उनके श्रमणों को भी निग्गंठ अथवा नियंठ निर्ग्रन्थ कहा गया है।
निर्ग्रन्थ का अर्थ है-ग्रंथरहित होना। ग्रन्थ सूक्ष्म और स्थूल रूप से दो प्रकार का है। सूक्ष्म ग्रन्थ आन्तरिक परिग्रह-मिथ्यात्व, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि १४ प्रकार का है।
इसी आन्तरिक ग्रन्थ के प्रभाव से बाह्य ग्रन्थ-धन-धान्य आदि १० प्रकार के परिग्रह का संचय किया जाता है अथवा इनके प्रति आसक्ति रखी जाती है।
पिछले पाँचवें अध्ययन में साधक के लिये सकाममरण को श्रेयस्कर बताया था किन्तु स्मरणीय तथ्य यह है कि सकाम अथवा पंडितमरण निरासक्त निर्ग्रन्थ श्रमण को ही होता है। पंडितमरण का मूल वीतरागभाव में निहित है। . प्रस्तुत अध्ययन में लघु-मुनि को ग्रन्थरहित होने की प्रेरणा देकर वीतरागभाव का संस्पर्श करने के लिये सावधान किया गया है।
जैनधर्म और आगमों में बहु-प्रचलित शब्द मिथ्यात्व के लिये प्रस्तुत अध्ययन की. प्रथम गाथा में अविद्या शब्द रखा गया है और बताया गया है कि जितने भी अविद्यावान पुरुष हैं, वे सभी दु:खी होते हैं। इन शब्दों से क्षुल्लक मुनि को मिथ्यात्व से विरत होने की प्रेरणा दी गई है।
सम्पूर्ण अध्ययन में अनासक्ति का स्वर गूंज रहा है। मुनि को प्रेरणा दी गई है कि धन, परिजन आदि रक्षक नहीं हो सकते। इसलिये कहा गया है कि आसक्ति और स्नेह को तोड़ दो। यहाँ तक कि अपने शरीर के प्रति जो मोह है, उसका भी त्याग कर देना चाहिये। ___सभी प्रकार के राग-द्वेष से मुक्त होना श्रमण का लक्ष्य है, इसी लक्ष्य की ओर लघु श्रमण को प्रेरित किया गया है।
एकान्तवादियों के चक्रव्यूह में न फँसकर शुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुये अप्रमत्तभाव से विचरण करने की प्रेरणा दी गई। मुमुक्षु, आत्मगवेषी साधु के लिये प्रस्तुत अध्ययन में निर्ग्रन्थता का बहुत ही प्रेरक विवेचन हुआ है।
इस अध्ययन में १८ गाथाएँ हैं।