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[३] किसी समय एक दिन एक स्थान पर एक साथ एकत्रित होकर बैठे हुए उनके ॐ श्रमणोपासकों में परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप हुआ
[प्र.] हे आर्यो! देवलोकों में देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है? ____ 3. Some time one day assembling together and sitting at a place, those shramanopasaks had a discussion as follows
[Q.] Noble ones ! What is said to be the life-span (sthiti) of gods + (divine beings) in divine realms ? ___४. तए णं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवट्ठिइगहियढे ते समणोवासए एवं वयासी
[उ.] देवलोएसु णं अज्जो ! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता, तेण | परं समयाहिया दुसमयाहिया तिसमयाहिया जाव दससमयाहिया संखेज्जसमयाहिया . ऊ असंखेज्जसमयाहिया; उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य।
४. [उ.] इस प्रश्न को सुनने के बाद देवों की स्थिति के विषय में ज्ञाता ऋषिभद्र-पुत्र ॐ श्रमणोपासक ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-आर्यों! देवलोकों में देवों की जघन्य ॥ म स्थिति दस हजार वर्ष बताई गई है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् दस ॐ समय अधिक, संख्यात समय अधिक और असंख्यात समय अधिक, (इस तरह बढ़ते हुए) के म उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। इसके आगे अधिक स्थिति वाले देव तथा । देवलोक नहीं है।
4. [Ans.) On hearing this question, shramanopasak . Rishibhadraputra, who had knowledge about the life-span of divine beings, said to the shramanopasaks present there-"Noble ones ! The minimum
life-span of gods in divine realms is said to be ten thousand years; then 4 with gradual increase of one Samaya (the smallest indivisible unit of
time), two Samayas... and so on up to... ten Samayas, countable Samayas, uncountable Samayas it can reach the maximum of thirty three Sagaropams (metaphoric unit of time). There are neither gods nor divine realms having life-span more than this.”
५. तए णं ते समणोवासगा इसिभद्दपुत्तस्स समणोवासगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव मी एवं परूवेमाणस्स एयमटुं नो सद्दहंति, नो पत्तियंति, नो रोयंति, एयमटुं असद्दहमाणा ॐ अपत्तियमाणा अरोएमाणा जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।
[५] इसके बाद उन श्रमणोपसकों ने ऋषिभद्र-पुत्र श्रमणोपासक द्वारा इस प्रकार कही हुई म यावत् प्ररूपित की हुई इस बात पर न तो श्रद्धा की, न प्रतीति की और न ही रुचि ली; उपर्युक्त
| भगवती सूत्र (४)
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Bhagavati Sutra (4) &5555555555555555555555555555555555