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पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, अभिरक्खित्ता, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाउ त्ति कट्टु पुरत्थिमं दिसं पासइ, पा. २ जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि यताई गेहइ। गे. २ किढिणसंकाइयगं भरेइ, किढि. भ. २ दब्भे य कुसे य समिहाओ य पत्तामोड च गेण्हइ, गे. २ जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, ते उवा. २ किढिणसंकाइयगं ठवेइ, किढि. ठवेत्ता वेदिं वड्ढेइ, वेदिं व. २ उवलेवणसम्मज्जणं करेइ, उ. क. २ दब्भ-कलसाहत्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवा. २ गंगामहानदिं ओगाहइ, गंगा. ओ. २ जलमज्जणं करेइ, जल. क. २ जलकीडं करेइ, जल. क. २ जलाभिसेयं करेइ, ज. क. २ आयंते चोक्खे परमसूइभूए देवय- पिइकयकज्जे दब्भसगब्भकलसाहत्थगए गंगाओ महानदीओ पच्चुत्तरइ, गंगा. प. २ जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवा. २ दब्भेहि य कुसेहि य वालुयाएहि य वेडं रएइ, वेइं र २ सरएणं अरणिं महेइ, स. मं. २ अगिंग पाडेइ, अग्गि पा. २ अगिंग संधुक्केइ, अ. सं. २ समिहाकट्ठाई पक्खिवइ, स. प. २ अरिंग उज्जालेइ, अ. उ. २
अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई समादहे । तं जहा - सकहं १ वक्कलं २ ठाणं ३
सेज्जाभंडं ४ कमंडलुं ५ । दंडदारुं ६ तहऽप्पाणं ७ अहेताइं समादते ॥
महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गि हुणइ, अ. हु. २ चरुं साहेइ, चरुं सा. २. बलिं वइस्सदेवं करेइ, बलि. क. २ अतिहिपूयं करेइ, अ. क. २ तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारे । [१२] तदनन्तर वह शिवराजर्षि प्रथम छट्ठ (बेले) के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरकर वल्कल के वस्त्र पहनकर जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए। वहाँ पर रहा हुआ किढीण (बाँस का पात्र -छबड़ी) और कावड़ लेकर पूर्व दिशा का पूजन कर इस प्रकार बोले- 'हे पूर्व दिशा के लोकपाल सोम महाराज ! प्रस्थान ( परलोक - साधना मार्ग) में प्रस्थित ( प्रवृत्त) मुझ शिवराजर्षि की आप रक्षा करें, और यहाँ (पूर्व दिशा में) जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पति हैं, उन्हें लेने की अनुज्ञा दें। इस प्रकार कहकर शिवराजर्षि ने पूर्व दिशा का अवलोकन किया और वहाँ जो भी कन्द, मूल, यावत् हरी वनस्पति मिली, उसे ग्रहण
की और कावड़ में लगी हुई बाँस की छबड़ी में भर ली। फिर दर्भ (डाभ), कुश, समिधा और
की शाखा को झुकाकर तोड़े हुए पत्ते लिए और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । कावड़
वृक्ष सहित
छबड़ी नीचे रखी, फिर वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीप कर शुद्ध किया। तत्पश्चात्
डाभ और कलश हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए। गंगा महानदी में अवगाहन किया और उसके जल से देह शुद्ध किया । फिर जलक्रीड़ा कर पानी अपने देह पर सींचा, जल का आचमन आदि करके स्वच्छ और परम पवित्र होकर देव और पितरों का कार्य सम्पन्न करके कलश में डाभ डालकर उसे हाथ में लेकर गंगा महानदी से बाहर निकले और जहाँ अपनी कुटी
भगवती सूत्र (४)
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Bhagavati Sutra ( 4 )
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