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855555555555555555555)))))))))))))))) + सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा, पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा
परिसडियकंद-मल-तय-पत्त-पष्फ-फलाहारा जलाभिसेयकढिणगाया आयावणाह
पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियंपिव कंडुसोल्लियंपिव कटुसोल्लियंपिव अप्पाणं जाव करेमाणा ॐ विहरंति (जहा उववाइए जावकट्ठसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति) तत्थ णं जे ते .
दिसापोक्खिय तावसा तेसिं अंतियं मुंडे भावित्ता दिसा-पोक्खियतावसत्ताए पव्वइत्तए।
पव्वइए वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हिस्सामि कप्पइ मे जावज्जीवाए के छठें छठेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालएणं तवोकम्मेणं उड्ढ बाहाओ पगिज्झियम
पगिज्झिय जाव विहरित्तए" त्ति कटु; एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जाव जलंते सुबहुं है ॐ लोहीलोह जाव घडावित्ता कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, को. स. २ एवं वयासी-खिप्पामेव भोई ॐ देवाणुप्पिया! हत्थिणापुरं नयरं सब्तिर बाहिरियं आसिय. जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति।
[६] उसके बाद एक दिन राजा शिव को रात्रि के पिछले प्रहर में (पूर्वरात्रि के बाद अपर रात्रि काल में) राज्य के कार्यभार का विचार करते हुए ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि यह मेरे # पूर्व-पुण्य कर्मों का प्रभाव है, इत्यादि तीसरे शतक के प्रथम उद्देशक में कथित तामली-तापस
के वर्णन के अनुसार विचार हुआ-यावत् मैं पुत्र, पशु, राज्य, राष्ट्र, बल (सैन्य), वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर और अन्त:पुर आदि द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ। अखूट धन, कनक, रत्न , यावत् सारभूत द्रव्य द्वारा अतिशय अभिवृद्धि प्राप्त कर रहा हूँ। तो क्या मैं पूर्व पुण्य कर्मों के
फलस्वरूप यावत् एकान्त सुख का उपभोग कर रहा हूँ तो अब मेरे लिये यही श्रेष्ठ है कि जब भी म तक मैं हिरण्य आदि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ, यावत् जब तक सामन्त राजा आदि भी मेरे वश है ॐ में हैं तब तक कल प्रात:काल देदीप्यमान सूर्य के उदय होने पर मैं बहुत-सी लोढ़ी, लोहे की है
कड़ाही, कुड़छी और ताम्बे के ताप सहने योग्य उपकरण (या पात्र) बनवाऊँ और शिवभद्र कुमार की फ़ को राज्य पर स्थापित कर उपयुक्त लोहे एवं ताम्बे के तापसोचित भांड-उपकरण लेकर, म
उन तापसों के पास जाऊँ जो वानप्रस्थ तापस गंगातट पर हैं; जैसे कि-अग्निहोत्री, पोतिक (वस्त्रधारी), कौत्रिक (पृथ्वी पर सोने वाले), याज्ञिक, श्राद्धी (श्राद्धकर्म करने वाले), खप्परधारी (स्थालिक), कुण्डिकाधारी, दन्त-प्रक्षालक, उम्मज्जक, सम्मज्जक, निमज्जक, सम्प्रक्षालक, ऊर्ध्वकण्डुक, अधोकण्डुक, दक्षिणकूलक, उत्तरकूलक, शंखधमक (शंख फूंककर भोजन करने वाले), कूलधमक (किनारे पर खड़े होकर आवाज करके भोजन करने वाले),
मृगलुब्धक, हस्तीतापस, जल से अभिषेक किये बिना भोजन नहीं करने वाले, बिलवासी, वायु में के रहने वाले, वल्कलधारी, जल में रहने वाले वस्त्रधारी, जलभक्षक, वायुभक्षक, शेवालभक्षक,
मूलाहारक, कन्दाहारक, पत्राहारी, पुष्पाहारी, फलाहारी, बीजाहारी, सड़ कर टूटे या गिरे हुए कन्द, + मूल, छाल, पत्ते, पुष्प और फल खाने वाले, ऊँचा दण्ड रखकर चलने वाले, वृक्ष के मूल में रहने के
वाले, मांडलिक, वनवासी, दिशाप्रोक्षी, आतापना से पंचाग्नि ताप तपने वाले इत्यादि औपपातिक | ग्यारहवाँशतक : नौंवा उद्देशक
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Eleventh Shatak : Ninth Lesson