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परिशिष्ट-2
सामायिक की विधि एवं 32 दोष
विभिन्न धर्म-परम्पराओं में उपासना की विविध विधियों का प्रचलन है। अधिकतर धर्म-परम्पराओं में अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने के लिए स्तुतियां की जाती हैं। इष्ट देवों से सुख-समृद्धि एवं दिव्य सुखों की याचना की जाती है।
जैन धर्म में भी उपासना की विधि प्रचलित है। यह दो रूपों में है-सामायिक के रूप में एवं प्रतिक्रमण के रूप में। उपासना की ये दोनों ही विधियां किसी इष्ट-देव की प्रार्थना स्वरूप नहीं हैं, बल्कि आत्म-उपासना स्वरूप हैं। जैन धर्म ईश्वर-केन्द्रित नहीं बल्कि स्वात्म-केन्द्रित है। जैन धर्म कहता है-देव-देवियों की स्तुति से क्षणिक सुख-साधन भले ही मिल जाएं परन्तु आत्मशान्ति की उपलब्धि उनसे संभव नहीं है। आत्मशान्ति के लिए आत्म-केन्द्रित उपासना की आवश्यकता है।
अशान्ति के मूल हेतु राग एवं द्वेष हैं। ये दो तत्व जब तक आत्मा में अवस्थित रहते हैं तब तक भले कितने ही सुख-साधन जुटा लिए जाएं, चक्रवर्तीत्व एवं इन्द्रत्व प्राप्त कर लिया जाए, परन्तु आत्मशांति की उपलब्धि जीव को नहीं हो सकती है। आत्मशांति के लिए आवश्यक है-राग एवं द्वेष की दुरभिसंधियों से मुक्त होकर स्वभाव में स्थिर होना। ज्ञान, दर्शन एवं आनंद आत्मा का शाश्वत स्वभाव है। उस शाश्वत स्वभाव में लौटने के लिए अनादिकालीन विभाव के शूलों से आत्मा को स्वतंत्र करना आवश्यक है। विभाव के शूल समभाव की सतत आराधना एवं प्रतिक्रमण की सजग साधना से ही आत्मा से अलग हो सकते हैं।
सामायिक का अर्थ है-समता भाव में स्थित होना। पुराने संस्कारों एवं तात्कालिक संयोगों-वियोगों से क्षण-प्रतिक्षण राग और द्वेष के अन्धड़ व्यक्ति के समक्ष उपस्थित होते रहते हैं। उन अंधड़ों से व्यक्ति एक क्षण में राग तथा दूसरे ही क्षण द्वेष में डूबता-उतरता रहता है। राग-द्वेष से उबरने के लिए सामायिक की आराधना एक रामबाण औषधि है।
श्रावक आवश्यक सूत्र
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