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हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापन
___'श्री आवश्यक सूत्र' पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हार्दिक हर्ष की अनुभूति कर रहा हूं। यूं तो मैं विगत कई वर्षों से मेरे श्रद्धेय गुरुदेव श्रुत आचार्य प्रवर्तक भगवंत श्री अमर मुनि जी महाराज के चरणों में रहकर शास्त्र-शृंखला के अनुवादन, संपादन और प्रकाशन के कार्यों से जुड़ा रहा हूं, परंतु इस आगम के ये सभी दायित्व मुझे पूर्व आगमों की अपेक्षा अधिक तत्परता से निभाने पड़े हैं। श्रद्धेय गुरुदेव की अस्वस्थता के मध्य इन दायित्वों को गुरु-निर्देशन में मैंने पूर्ण करने का प्रयास किया है। इस सूत्र पर कार्य करते हुए मुझे प्रथम बार महसूस हुआ कि आगम संपादन-अनुवादन-प्रकाशन का कार्य कितना दुरूह है। परंतु यह भी सच है कि इस दुरूहता में भी मैंने बहुत मिठास और सघन आत्म-तोष को पाया है। श्रद्धेय गुरुदेव के इस भागीरथ-संकल्प में मैं एक छोटे-से सहयोगी के रूप में जुड़कर बहुत-बहुत आह्लाद अनुभव कर रहा हूं।
सुना था कि सद्गुरु का आशीष अकाट्य और अक्षर होता है। पहले केवल सुना था, अब आगम प्रकाशन यात्रा पर कदम-दर-कदम बढ़ते हुये मैंने उक्त सुने हुए सिद्धान्त को अपने जीवन में सच होते हुए अनुभव किया है। निःसन्देह सद्गुरु के आशीष में ईश्वर का सन्देश निहीत होता है।
'श्री आवश्यक सूत्र' का बत्तीस आगमों के क्रम में अन्तिम स्थान है। यह अन्तिम क्रम पर इसलिए अवस्थित है क्योंकि इसमें बत्तीस आगमों में वर्णित आचार की शुद्धि के सूत्रों का संकलन है। इसके चिन्तन-मनन-आराधन से साधक की साधना शुद्ध और उज्ज्वल होती है। शेष आगमों का स्वाध्याय प्रतिदिन अनिवार्य नहीं है, परन्तु प्रस्तुत आगम का स्वाध्याय और
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