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वणिज्जे, 8. रसवणिज्जे, 9. केसवणिज्जे, 10. विस - वणिज्जे, 11. जंतपीलणियाकम्मे, 12. निल्लंच्छणियाकम्मे, 13. दवग्गिदावणियाकम्मे, 14. सर - दह तालाब सोसणियाकम्मे, 15. असइ - जण पोसणिया कम्मे, जो मे देवसि अइयार कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
भावार्थ : उपभोग - परिभोग परिमाण नामक सातवें व्रत के विषय में यदि कोई दोष लगा हो तो उसकी आलोचना करता हूं। सातवें व्रत के 5 अतिचार इस प्रकार हैं- (1) प्रत्याख्यान होने पर भी सचित्त वस्तु का आहार किया हो, (2) सचित्त प्रतिबद्ध वस्तु का आहार किया हो, (3) अपक्व (जो ठीक से पकी नहीं है) वस्तु का आहार किया हो, (4) दुष्पक्व (पकने पर भी जो बिगड़ गई है) वस्तु का आहार किया हो, एवं (5) तुच्छौषधि (जिस वस्तु में खाने योग्य अंश अल्प एवं फैंकने योग्य अधिक हो, गन्ना आदि) का आहार किया हो, उक्त अतिचारों में से किसी अतिचार का सेवन किया हो तो उससे उत्पन्न दोष मिथ्या हों।
पन्द्रह प्रकार के कर्मादान (ऐसे व्यवसाय जिनमें महाहिंसा होती है) के विषय में यदि कोई दोष लगा हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूं। पन्द्रह कर्मादानों का स्वरूप इस प्रकार है - (1) कोयलों का व्यवसाय, (2) वन कटवाना, (3) छकड़े - गाड़ी आदि बनाने का व्यवसाय, (4) ऊंट, बैल, घोड़े आदि को भाड़े पर देने का व्यवसाय, (5) पृथ्वी में विस्फोट करके मिट्टी, पत्थर आदि निकालने का व्यवसाय, (6) हाथी, व्याघ्र आदि के दांतों एवं उनसे
हुई वस्तुओं का व्यापार करना, ( 7 ) लाख, गोंद आदि का व्यापार, (8) मदिरा आदि रसों का व्यवसाय, (9) पशु-पक्षियों के केशों अथवा पशु-पक्षियों एवं मनुष्यों को बेचने - खरीदने का व्यवसाय, (10) अफीम आदि नशीली एवं धतूरा आदि जहरीली तथा तोप - तलवार आदि घातक वस्तुओं का व्यापार, ( 11 ) कोल्हू, घानी आदि का व्यापार, (12) बैल, घोड़े आदि पशुओं को नपुंसक बनाने का व्यवसाय, ( 13 ) वनों की सफाई या अधिक पैदावार के लिए खेतों में आग लगाना, ( 14 ) तालाब, कुएं आदि को सुखाने का कार्य करना, ( 15 ) हिंसक जीवों एवं दुराचारी स्त्रियों - पुरुषों का व्यापार हेतु पोषण करना ।
उपरोक्त 15 प्रकार व्यवसाय एवं कार्य महा-हिंसा के कारक हैं। श्रावक ऐसे व्यापारों का त्यागी होता है। भूलवश, लोभवश अथवा प्रमाद - वश ऐसे व्यापारों का कभी सेवन कर लिया जाए तो उसे अपनी भूल सुधार लेनी चाहिए।
प्रस्तुत कर्मादान अतिचार विषयक आलोचना सूत्र में श्रावक प्रतिज्ञा करता है कि पन्द्रह कर्मादान संबंधी किसी अतिचार का मैंने सेवन किया हो तो उससे उत्पन्न दोष मेरे लिए मिथ्या हों।
प्रथम अध्ययन : सामायिक
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Shravak Avashyak Sutra