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के सावद्य-योगों (दुश्चिन्तन, दुर्वचन एवं दुष्कर्म) का मैं परित्याग करता हूं। ग्रहण की गई सामायिक की अवधिपर्यंत अर्थात् जितने काल तक मैं सामायिक की आराधना करूंगा उतने काल तक के लिए दो करण (करना-कराना) एवं तीन योग (मन-वचन-काय) से समस्त पापों को मन, वचन एवं काय से न मैं स्वयं करूंगा और न ही दूसरों से कराऊंगा। भगवन्! अतीत काल में मेरे द्वारा हुए समस्त सावध व्यापारों से मैं पीछे हटता हूं, उनकी आत्म-साक्षी से निन्दा करता हूं, गुरु-साक्षी से गर्दा करता हूं एवं अपनी पापरूप आत्मा का परित्याग करता
Exposition: 'O' Lord! I am ready for practicing Samayik—the state of equanimity. I detach myself from all activities involving violence (namely ill thoughts, foul words and bad reactions) for the defined period upto which I have adopted samayik, I shall neither do myself nor get done any sin through others mentally, orally or physically. I withdraw myself from all acts of violence performed by me in the past. I curse them though self-criticism and condemn them in the presence of my spiritual master. I detach myself from that sinful state.
विवेचन : साधु की सामायिक जीवन पर्यंत के लिए होती है एवं श्रावक की सामायिक न्यूनतम अड़तालीस मिनट के लिए। सूत्र में आए हुए 'जाव नियम' पद से यही संकेत किया गया है। यदि श्रावक एक सामायिक करना चाहता है तो इस पद के स्थान पर 'मुहूर्त एक घड़ी दो' कहे, यदि दो सामायिक करना चाहता है तो 'मुहूर्त दो घड़ी चार' कहे। जितनी सामायिक करनी हैं उसी के अनुसार मुहूर्त एवं घड़ी की संख्या बढ़ा लेनी चाहिए।
साधु तीन करण एवं तीन योग से जीवन भर के लिए समस्त सावद्य-व्यापारों का त्याग करता है। श्रावक के लिए ऐसा संभव नहीं है। उस पर परिवार, समाज एवं संघ के अनेक दायित्व होते हैं। उन दायित्वों के पालन के लिए उसे आरंभ-समारंभ करना पड़ता है। सूत्र में दुविहं तिविहं' जो पद आया है उसका अर्थ है- मन, वचन एवं काय से सावध व्यापारों को न मैं स्वयं करूंगा एवं न ही किसी दूसरे से कराऊंगा। यहां पर सावध व्यापारों के अनुमोदन का त्याग नहीं किया गया है। ऐसा इसलिए है कि श्रावक के जो सावध उद्योग-व्यापार आदि प्रगतिमान हैं उनमें उसकी अनुमोदना अखण्ड रूप से जुड़ी हुई है। श्रावक जब सामायिक करता है, उस समय भी उसके व्यापार आदि चलते ही रहते हैं। इसलिए अनुमोदन का त्याग श्रावक के लिए संभव नहीं है।
Explanation: The samayik of a jain monk is for entire life while the samayik of a shravak is for the minimum period of 48 minutes. The words 'Jaav niyam'in
प्रथम अध्ययन : सामायिक
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Shravak Avashyak Sutra