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सव्वं कोहं, जाव सव्वं मिच्छा-दंसणसल्लं, अकरणिज्जं जोगं पच्चक्खामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणेमि, मणसा, वयसा, कायसा, सव्वं, असणं, पाणं, खाइमं साइमं चउव्विहंपि आहारं पच्चक्खामि, जावज्जीवाए। जंपि य इमं सरीरं इट्ठ, कंतं, पियं, मणुण्णं, मणामं, धिज्जं, विसासिय, संमयं, अणुमयं, बहुमयं, भण्ड-करण्डय-समाणं, रयण-करण्डभूयं मा णं सीअं, मा णं उण्हं, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं वाला, मा णं चोरा, मा णं दंसा, मा णं मसगा, माणं वाहियं, पित्तियं, संभियं सन्निवाइयं, विविहा रोगायंका-परिसहोवसग्गा न फुसंतु, त्ति कट्टु एवं पिय णं चरिमेहिं उस्सास - निस्सासेहिं वोसिरामि, त्ति कट्टु संलेहणा झूसणाए देहं झोसित्ता कालं अणवकंखमाणे विहरामि । एवं मए सद्दहणा, परूवणा, अणसणावसरे पत्ते, अणसणे कए फासणाए सुद्धा हविज्जा, एवं अपच्छिममारणन्तिय-संलेहणा झूसणा आराहणाए पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा-इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।
भावार्थ : “ अरिहन्त और सिद्ध भगवान् मुझ पर कृपा करें।" इस प्रकार अरिहन्तों-सिद्धों को वन्दन करके ऐसा कहे - अहो भगवन् ! पूर्व में मैंने जितने भी व्रत आचरण किए हैं उनमें यदि दोष लगे हैं तो उनकी आलोचना, निन्दा और प्रतिक्रमण करता हूं। पुनः नि:शल्य (माया, निदान एवं मिथ्यादर्शन रूपी कांटों से मुक्ति हेतु) होने के लिए सभी प्रकार की हिंसा का परित्याग करता हूं। सभी प्रकार के असत्य, सभी प्रकार के चौर्य कर्म, सभी प्रकार के मैथुन, सभी प्रकार के परिग्रह, सभी प्रकार के क्रोध यावत् मिथ्या दर्शन शल्य पर्यंत अठारह ही पापों का तथा न करने योग्य कार्यों एवं इन्द्रिय व्यापारों का परित्याग करता हूं। मैं जीवन भर तीन योगों - मन, वचन एवं काय से उपरोक्त अठारह पापों का न स्वयं सेवन करूंगा, न किसी को सेवन करने के लिए प्रेरित करूंगा और सेवन करने वालों को अच्छा भी नहीं मानूंगा। सभी प्रकार के अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों आहारों का जीवन-भर के लिए परित्याग करता हूं।
मेरा यह शरीर जो कि मुझे इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, धैर्य - पात्र, विश्वासपात्र, सम्मत, अनुमत, बहुमत एवं आभूषणों तथा रत्नों के पिटारे के समान प्रिय रहा है, मैं सदैव सावधान रहा हूं कि इसे शीत का प्रकोप न हो, गरमी न लगे, भूख न लगे, प्यास परेशान न करे, सर्प आदि न डसें, चोर न सताएं, डांस-मच्छर आदि न दंसें, वात-पित्त-कफ- सन्निपात आदि विविध रोगातंक, बाईस परीषह तथा उपसर्ग इसका स्पर्श न करें। इस प्रकार पालित-पोषित और रक्षित अपने इस शरीर का अंतिम श्वास-प्रश्वास तक के लिए परित्याग करता हूं। इस प्रकार संलेखना
Avashyak Sutra
षष्ठ अध्ययन : प्रत्याख्यान
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