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'कायोत्सर्ग' भेद-विज्ञान को परिपक्व बनाने वाला विशिष्ट साधन है। शरीर अलग है, आत्मा अलग है। शरीर मरणधर्मा है, आत्मा अजर, अमर, अविनाशी तत्व है। शरीर से उत्पन्न होने वाले समस्त सुख और दुख क्षणिक हैं, अज्ञान से पैदा होते हैं। जैसे ही आत्मबोध पुष्ट होता है, वैसे ही शारीरिक सुख-दुख विदा हो जाते हैं। साधक साधना में सुमेरु के समान अचल-अकंप हो जाता है। देवों, मानवों और तिर्यंचों द्वारा दिये गए उपसर्गों एवं बाईस प्रकार के परीषहों में साधक का मन न तो चलित होता है और न ही भयभीत होता है।
श्री अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग को व्रण-चिकित्सा कहा गया है। उत्तम औषधि से जैसे शरीर के घाव शीघ्र ही भर जाते हैं, वैसे ही कायोत्सर्ग से आत्मा पर लगे हुए अतिचार रूपी घाव भर जाते हैं।
कायोत्सर्ग बैठकर, खड़े होकर अथवा लेट कर, इन तीनों ही अवस्थाओं में किया जा सकता है। जो साधक बैठकर कायोत्सर्ग करना चाहे उसे सुखासन या पद्मासन में बैठकर ध्यान करना चाहिए। उच्च सत्त्व साधक वीरासन, गोदुहिकासन, वज्रासन में स्थिर होकर भी कायोत्सर्ग करते हैं। खड़े होकर कायोत्सर्ग करने वाले साधक के लिए नियम है कि वह शान्त मुद्रा में खड़ा होकर दोनों बाहुओं को घुटनों की ओर फैला दे। बन्द अथवा आधी बन्द आंखें रखकर धर्म और शुक्ल ध्यान में रमण करे। लेटकर कायोत्सर्ग करने वाले साधक के लिए उचित है कि वह सीधा पृथ्वी पर लेटकर शरीर के समस्त अंगोंपांगों को शिथिल कर दे। हाथों-पैरों को परस्पर अथवा शरीर से अस्पर्शित रखे।
कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ), संसार (पांच इन्द्रियों के विषय), एवं कर्म (ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म)-इन तीनों का उत्सर्ग अर्थात् त्याग ही कायोत्सर्ग का प्रधान लक्षण है। कायोत्सर्ग की सम्यक् आराधना से साधक कषाय, संसार एवं कर्म के कान्तार से शीघ्र ही पार हो जाता है।
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आवश्यक सूत्र
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