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भावार्थ : अढ़ाई द्वीप - समुद्र पर्यंत पन्द्रह कर्मभूमियों में जो कोई भी रजोहरण, गुच्छक और पात्र धारण करने वाले, पांच महाव्रतों एवं अठारह हजार शीलांगों (सदाचार के अंगों ) को अंगीकार करने वाले तथा अक्षय आचार रूपी चारित्र का पालन करने वाले मुनिराज हैं, उन सभी को सिर से, मन से एवं मस्तक से वन्दन करता हूं।
Exposition: There are monks in fifteen karambhumis situated in two and a half islands (Dveeps) upto the last ocean. Out of them there are such monks who keep holy broom, pots and meticulously observe five major vows and eighteen thousand precautions relating to good ascetic conduct. Their ascetic conduct is of high order and never declines. I bow to them with my head, mind and forehead.
विवेचन : प्रस्तुत निर्ग्रन्थ प्रवचन के पाठ में श्रमण की श्रद्धा, संकल्प और वन्दनमय भावों की प्रस्तुति है। इस पाठ का प्रारंभ चौबीस तीर्थंकरों को प्रणाम करने से शुरू होता है। तत्पश्चात् साधक निर्ग्रन्थ-प्रवचन की सर्वश्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए उसके पालन का आत्मसंकल्प करता है। साथ ही असंयम आदि अनाचार के त्याग एवं संयम आदि सदाचार के स्वीकार की साधक प्रतिज्ञा करता है। उसके बाद वह अपने श्रमण स्वरूप का चिन्तन करता है। अंत में अढ़ाई द्वीप में विराजित समस्त साधुओं को नमन कर साधुता के प्रति अपनी भक्ति को व्यक्त करता है।
'निर्ग्रन्थ' जैन परम्परा का पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है - ग्रन्थ अर्थात् गांठ से रहित । धन, जन आदि का आकर्षण बाह्य ग्रन्थियां हैं, काम, क्रोध आदि आंतरिक ग्रन्थियां हैं। बाह्य और आंतरिक- इन दोनों ग्रन्थियों से जो रहित है उसे ही निर्ग्रन्थ कहा जाता है।
अरिहंतों की वाणी प्रवचन कहलाती है।
Explanation: This aphorism narrates the faith, determination and benediction of a monk. This lesson starts with obeisance to twenty four Tirthankars. Thereafter the pupil accepting the excellence of the word of scriptures makes a resolve to follow it in daily life Simultaneously he discards bad conduct such as non-restraint and the like. He takes a vow to follow good conduct meticulously. Thereafter he contemplates about his ascetic nature. In the end he bows to all the monks in the human world consisting of two and a half islands for their ascetic conduct of high order with great devotion.
The word 'Nigranth' is a unique word in Jain tradition. It means one free from worldly knots. Attraction for worldly wealth relation and the like constitute external hurdles (knots) the internal hurdles are lust, anger and the like. Nigranth is one who is free from both internal and external knots.
चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण
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Avashyak Sutra
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