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________________ Frankskskskskske saks kskskskskskcole skesakskskskskskskskskskskskskskskskskskske skeske.ske.sleakeekaran (14) सदेव-मनुष्य-असुरलोक की आशातना-देवलोक, मनुष्यलोक एवं असुरलोक के । संबंध में आगम-विरुद्ध श्रद्धा-प्ररूपणा करना, 'सदेव-मनुष्य-असुरलोक आशातना' है। (15) सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्वों की आशातना-प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व-ये चारों शब्द पर्यायवाची हैं। कुछ आचार्यों ने इन चारों शब्दों के अन्तर्गत विभिन्न जीवों को इस प्रकार चिन्हित किया है_____ दो इन्द्रिय वाले, तीन इन्द्रिय वाले एवं चार इन्द्रिय वाले सभी त्रस जीव प्राण कहलाते हैं। पृथ्वीकाय आदि के जीव भूत कहलाते हैं। 'जीव' शब्द संसार के समस्त प्राणियों के लिए व्यवहृत होता है। संसारी और मुक्त-समस्त जीवों की 'सत्त्व' संज्ञा है। उक्त प्राण-भूत-जीव एवं सत्त्वों के संबंध में मिथ्या धारण रखना, इन्हें कष्ट पहुंचाना इनकी आशातना है। (16) काल की आशातना-उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी स्वरूप कालचक्र की सत्ता को अस्वीकार करना, अथवा काल को ही सर्वेश्वर आदि स्वरूपों में मानना काल की आशातना ___(17) श्रुत की आशातना-आगमज्ञान श्रुत कहलाता है। श्रुत के प्रति श्रद्धा न होना, उसे सर्वज्ञोक्त न मानना आदि श्रुत की आशातना है। (18) श्रुतदेवता की आशातना-श्रुत के मूल उद्गम तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर के श्रीमुख से सुने हुए उपदेश को गणधर सूत्रबद्ध करते हैं, अतः तीर्थंकर एवं गणधर मूलरूप से श्रुत-देवता हैं। श्रुतकेवली, शासन अधिष्ठात्री देवी, सरस्वती देवी एवं सोलह विद्यादेवियां श्रुतदेवताओं में परिगणित होते हैं। (19) वाचनाचार्य की आशातना-संघ के साधु-साध्वियों को वचना देने वाले को वाचनाचार्य कहते हैं। वाचनाचार्य की वाचना शैली में दोष निकालना, उन्हें अबहुश्रुत कहना, उनका उचित सम्मान न करना, वाचनाचार्य की आशातना है। (20-33) 'जवाइद्धं' से लेकर 'सज्झाइए न सज्झाइय', इन पदों का स्वरूप ‘ज्ञान के अतिचारों' के पाठ में बताया जा चुका है। ___ आत्म-कल्याण के अभिप्सु साधक को उपरोक्त तेंतीस आशातनाओं से बचना चाहिए। प्रमादवश, भूलवश अथवा अज्ञानवश कदाचित् आशातना हो जाए तो 'आशातना प्रतिक्रमण' के द्वारा उत्पन्न दोष का निराकरण कर लेना चाहिए। 1. आचार्य जिनदास महत्तर एवं आचार्य हरिभद्र सूरि। चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण भीमाp // 118 // Avashyak Sutra aaparapparasaaraamarpan
SR No.002489
Book TitleAgam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2012
Total Pages358
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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