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( 2 ) भत्तकथा - भोजन-संबंधी कथा |
(3) देश कथा - विभिन्न देशों के विविध प्रकार के रहन-सहन, वेश - विन्यास, साज-श्रृंगार, खान-पान, शिल्पादि की चर्चा करना ।
(4) राजकथा-राजनीति, राजाओं के ऐश्वर्य, विलास, युद्ध आदि से संबंधित कथा करना । उपरोक्त चारों प्रकार की कथाएं साधु के लिए वर्जित हैं। उक्त कथाओं के किन्हीं संदर्भों से यदि वैराग्य का पक्ष पुष्ट होता है तो वैराग्यशील साधु इनका संक्षिप्त उल्लेख / कथन कर सकता है। यहां प्रमाद या मोहवश की गई विकथाओं का प्रतिक्रमण किया गया है।
ध्यान प्रतिक्रमण : किसी एक पदार्थ पर अथवा ध्येय पर चित्तवृत्तियों को एकाग्र करना ध्यान है। आर्त्त और रौद्र- ये दो ध्यान अप्रशस्त एवं धर्म और शुक्ल - ये दो ध्यान प्रशस्त
(1) आर्त्तध्यान- इष्ट वस्तु के वियोग एवं अनिष्ट वस्तु के संयोग से मन में उत्पन्न होने वाला दुख, शोक, पीड़ा का भाव ।
(2) रौद्र ध्यान - क्रूरता पूर्ण मानसिक चिन्तन रौद्र ध्यान कहलाता है। .
(3) धर्म ध्यान- अरिहन्त - प्ररूपित प्रवचन के चिन्तन में चित्तवृत्तियों का एकाग्र होना धर्मध्यान है।
(4) शुक्ल ध्यान- शुभ-श्वेत, निष्कलंक, निष्कर्म आत्मध्यान में तल्लीन रहना शुक्ल ध्यान कहलाता है।
प्रथम दो ध्यानों का यदि प्रमादवश चिन्तन किया हो एवं अंतिम दो ध्यानों का चिन्तनआराधन न किया हो तो उससे उत्पन्न दोष की निवृत्ति हेतु साधु प्रतिक्रमण करता है।
क्रिया प्रतिक्रमण : प्रमुख रूप से क्रिया के दो भेद हैं- प्रशस्त क्रिया एवं अप्रशस्त क्रिया । आत्मा को आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में ले जाने वाली समस्त क्रियाएं प्रशस्त हैं एवं अवनति की दिशा में ले जाने वाली समस्त क्रियाएं अप्रशस्त हैं। यहां क्रिया के अप्रशस्त स्वरूप का प्रतिक्रमण किया गया है। अप्रशस्त क्रिया के संक्षिप्त शैली के अनुसार पांच भेद हैं, यथा
(1) कायिकी क्रिया - शरीर के द्वारा होने वाली क्रियाओं को कायिकी क्रिया कहा जाता
है।
(2) आधिकरणिकी क्रिया-अस्त्र, शस्त्र आदि को अधिकरण कहते हैं। उनके निर्माण एवं उपयोग से उत्पन्न होने वाली समस्त पापजनक क्रियाएं आधिकरणिकी क्रिया के अंतर्गत आती हैं।
चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण
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Avashyak Sutra
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