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बंधन प्रतिक्रमण : जो जीव को संसार में बांध कर रखे उसे बन्धन कहा जाता है। यह दो प्रकार का है-राग बन्धन एवं द्वेष बन्धन। समस्त संसारी आत्माएं इन दो बन्धनों में बंधी * हुई हैं। राग और द्वेष, ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां एक विद्यमान रहेगा वहां
दूसरा भी विद्यमान रहेगा। राग-द्वेष को संसार रूपी वृक्ष का बीज कहा गया है। इन बीजों को नष्ट करने के लिए ही सजग साधक इनसे प्रतिक्रमण करता है।
दण्ड प्रतिक्रमण : जिन साधनों से आत्मा दण्डित हो उन्हें दण्ड कहा जाता है। दण्ड तीन प्रकार का है-(1) मनो-दण्ड, (2) वचन-दण्ड, एवं (3) काय-दण्डों विषय-विकारों के चिन्तन में संलग्न रहने वाला मन, मनोदण्ड है। असत्य, निन्दा, विकथा में प्रवृत्त रहने वाला वचन, वचनदण्ड है। हिंसा, अनाचार, चोरी आदि में प्रवृत्त शरीर, कायदण्ड है। ___गुप्ति प्रतिक्रमण : गुप्ति का अर्थ है-गोपन करना। अशुभ प्रवृत्तियों से हटकर शुभ प्रवृत्तियों में संलग्न होना गुप्ति है। गुप्तियां तीन हैं-(1) मनोगुप्ति, (2) वचन गुप्ति, एवं (3) कायगुप्ति। विषयों-विकारों आदि से मन को बचाकर रखना मनोगुप्ति है। निन्दा, चुगली, विकथा आदि से वचन को रक्षित रखना वचन गुप्ति है। हिंसा, अनाचार आदि से शरीर को गोप कर रखना कायगुप्ति है। तीन प्रकार की गुप्तियों में यदि दोष उत्पन्न हुआ है तो साधक प्रतिक्रमण द्वारा उनकी शुद्धि करता है।
शल्य प्रतिक्रमण : शल्य का अर्थ है शूल अर्थात् कांटा। शरीर के किसी भी अंग में यदि शूल चुभ जाए, शूल की नोक शरीर के भीतर ही रह जाए तो वह निरन्तर चुभन पैदा करती रहती है। जब तक वह शूल शरीर में रहती है तब तक व्यक्ति निरन्तर अशान्त रहता है। शरीर में जो चभन शल उत्पन्न करती है. आत्मा में वही चभन उत्पन्न करने वाले तीन बडे दोष हैं। उन दोषों का नाम है-(1) माया, (2) निदान, एवं (3) मिथ्यादर्शन। आगमीय भाषा में इन्हें शल्य कहा जाता है। माया का अर्थ है-छल-कपट। निदान का अर्थ है-धर्म-साधना के प्रतिफल के रूप में सांसारिक भोगोपभोगों की कामना रखना। मिथ्यादर्शन का अर्थ है-विपरीत श्रद्धा, सत्य को असत्य एवं असत्य को सत्य मानना। ये तीनों शल्य आत्मा को सालते रहते हैं, आत्मा को कदापि शान्ति का अनुभव नहीं करने देते हैं।
गारवगौरव प्रतिक्रमण : गौरव का अर्थ है-अहंकार। अहं भाव से जीव भारी हो जाता है। इसीलिए इसे गौरव कहा गया है। गौरव तीन प्रकार का है-(1) ऋद्धि गौरव, (2) रस गौरव, एवं (3) साता गौरव। अपनी ऋद्धि-सिद्धि, विद्या, यश, पद आदि का अहंकार करना ऋद्धि गौरव है। दूध, दही, घृत आदि इष्ट रसों की प्राप्ति पर अहंकार करना रस गौरव है। आरोग्य और शारीरिक सुख, तथा मनोज्ञ वस्त्र-पात्र आदि की प्राप्ति पर गर्व करना साता गौरव है।
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चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण
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