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________________ आगमज्ञों ने प्रतिक्रमण के भेदोपभेदों पर विस्तार से चिन्तन किया है। मुख्य रूप से प्रतिक्रमण के दो भेद बताए गए हैं- द्रव्य - प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण । यश प्राप्ति के लिए एवं मात्र परम्परा के निर्वाह के लिए किया जाने वाला प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण है। इसमें व्यक्ति सूत्र - पाठों को तो पढ़ता है पर उनके अर्थ पर चिन्तन नहीं करता और न ही उसके हृदय में पापों के प्रति ग्लानि उत्पन्न होती है। ऐसा साधक प्रतिदिन प्रतिक्रमण करता है और साथ ही पुनः पुनः दोषों का सेवन भी करता रहता है। भाव प्रतिक्रमण में साधक एकाग्रचित्त होकर पूरे मनोयोग से प्रतिक्रमण की आराधना करता है। वह अपने दोषों का स्मरण करता है, दोषों के प्रति उसके हृदय में तीव्र ग्लानि उत्पन्न होती है और वह पुनः दोष न हो इसके लिए पूर्ण अप्रमत्त रहता है। भाव प्रतिक्रमण ही वास्तविक प्रतिक्रमण है। इसी से आत्मशुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति है। गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा पडिक्कमणेणं भंते! जीवे किं जणय ? भगवन्! प्रतिक्रमण से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? • भगवान् ने फरमाया पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि पिइ । पिहियवयछिदे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरित् अट्ठसु पवयण-मायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ । - उत्त. २९/११ गौतम । प्रतिक्रमण से जीव व्रत के छिद्रों को ढांपता है। शुद्ध व्रतधारी होकर आस्रवों को रोकता हुआ, शबल आदि दोषों से रहित, शुद्ध संयम वाला होकर आठ प्रवचनमाताओं में सावधान हो जाता है। विशुद्ध चारित्र को प्राप्त करके, उनसे अलग न होता हुआ समाधिपूर्वक संयम-मार्ग में विचरण करता है। प्रतिक्रमण के अभाव में सिद्धि संभव नहीं है। इसीलिए प्रतिक्रमण का आवश्यकीय विधान आवश्यक सूत्र में हुआ है। दोनों संध्याओं - दिवसान्त एवं निशांत में भावपूर्वक प्रतिक्रमण की आराधना करने वाला साधक शीघ्र ही संसार - सागर को तैर लेता है। आवश्यक सूत्र // 75 // Oo IVth Chp. : Pratikraman
SR No.002489
Book TitleAgam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2012
Total Pages358
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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