________________
तृतीय अध्ययन: वन्दन
आमुख : __"वन्दन" तृतीय आवश्यक है। द्वितीय आवश्यक में साधक भाव-विभोर होकर चौबीस जिनदेवों की स्तुति करता है। स्तुति से साधक का हृदय आध्यात्मिक उल्लास और आनंद से खिल जाता है। तत्पश्चात् वह जिनदेवों के उत्तराधिकारी एवं जिनदेवों के स्वरूप का बोध देने वाले गुरु के प्रति भक्तिभाव से ओत-प्रोत हो जाता है। फलस्वरूप वह विनयावनत होकर गुरु
को वन्दन करता है। इसीलिए जिन स्तुति के पश्चात् गुरु-वन्दन का आवश्यकीय विधान है। - विनय जिनशासन का मूल है। जैसे जड़ में वृक्ष के प्राण बसते हैं वैसे ही विनय में जिनशासन
के प्राणों का निवास है। विनीत आत्मा ही समस्त आध्यात्मिक संपत्तियों का स्वामी बनता है। विनय सुपात्रता है। उसके अभाव में अध्यात्म-संपदा को धारण नहीं किया जा सकता।
विनय से वंदन फलित होता है। वन्दन की फलश्रुति क्या है, यह निम्न प्रश्नोत्तरी में स्पष्ट हो जाती है।
वंदणएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
वंदणएणं णीयगोयं कम्मं खवेइ, उच्चगोयं कम्मं णिबंधइ, सोहग्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं णिव्वत्तेइ, दाहिणभावं च णं जणयइ।
-उत्त. 29/10 ___भंते! वन्दन से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है?
गौतम! वन्दन से जीव नीच गोत्र के कर्मों का क्षय करता है, उच्चगोत्र का उपार्जन करता + है, सौभाग्य प्राप्त करता है, उसकी आज्ञा सभी स्वीकार करते हैं, कुशलता और सर्वप्रियता की उसे प्राप्ति होती है।
वन्दन करते हुए व्यक्ति भले ही नीचे झुकता हुआ दिखायी देता है, परन्तु आध्यात्मिक 1 दृष्टि से वह ऊर्ध्वारोहण करता है। उसके सुख, सौभाग्य और कुशलताएं निरन्तर बढ़ती जाती
००
हैं।
आवश्यक सूत्र
// 67 //
IIIrd Chp.:Vandan