SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 蛋蛋蛋蛋 वीवंत ] एवं अणागए वि [ अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतसंसारकं तारं वीईवइस्संति ] | इस द्वादशांग गणि-पिटक की सूत्र - अर्थ उभयरूप आज्ञा का आराधन करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में, परिमित जीव वर्तमान काल में तथा अनन्त जीव भविष्य काल में चतुर्गति रूप संसार - कान्तार को पार किया है, पार कर रहे हैं, और पार करेंगे। Through propitiating this Gani Pitak (twelve canons) meanings and in the both forms, infinite beings in past, limited beings in present and infinite beings in future will cross, are crossing and have crossed this four fold realms of world ocean. ५७३ - दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण कयाइ णासी, ण कयावि णत्थि, ण कया ण भविस्सइ। भुंवि च, भवति य, भविस्सति य । धुवे नितिए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे। से जहा णामए पंच अत्थिकाया ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्संति। भुविंच, भवति य, भविस्संति य, धुवा णितिया सासया अक्खया अव्वा अवट्टिया णिच्चा । एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ । भुविं च भवति य, भविस्सइ य । धुवे जाव अवट्ठिए णिच्चे । निरन्तर - वाचना देने यह द्वादशांग गणि पिटक भूतकाल मैं कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है, ऐसा नहीं है तथा भविष्य काल में कभी नहीं रहेगा; ऐसा भी नहीं है । किन्तु भूतकाल में भी यह द्वादशांग गणि-पिटक था, वर्तमान काल में भी है और भविष्य काल में भी रहेगा। क्योंकि यह द्वादशांग गणि पिटक मेरु पर्वत सदृश ध्रुव है, लोक व काल सदृश नियत और शाश्वत है, पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण अक्षय है, गंगा - सिन्धु नदियों के प्रवाह समान अव्यय है, जम्बूद्वीप आदि के सदृश अवस्थित है और आकाश सदृश नित्य है। जिस प्रकार पंचास्तिकाय द्रव्य भूतकाल में कभी नहीं थे, ऐसा नहीं है, वर्तमान काल और भविष्य काल में कभी नहीं हैं, कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं है । किन्तु ये पाँचों अस्तिकाय द्रव्य भूतकाल में भी थे, वर्तमानकाल में भी हैं और भविष्यकाल में भी रहेंगे। अस्तु, ये पंचास्तिकाय द्रव्य ध्रुव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं अक्षय हैं, * अव्यय हैं, अवस्थित हैं और नित्य हैं। इसी प्रकार यह द्वादशांग गणि पिटक भूतकाल में, कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, इसी प्रकार यह द्वादशांग गणि पिटक वर्तमानकाल में भी और भविष्यकाल में भी कभी नहीं है और कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है । किन्तु भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल अर्थात् तीनों काल में भी यह था, यह है और यह रहेगा । अतः यह ध्रुवं है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है तथा नित्य है। It is not so that these twelve canon (Ganipitak) ever were not in past, are not in present or will not be in future. But these were even in past, these are गणि-पिटक 294 Samvayang Sutra 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
SR No.002488
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2013
Total Pages446
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy