________________
%
%%%%%%%%%%%%
%%%%%
%%%%
%
%%
%
%%%
%%%%
और तप का परिपालन करने रूप रण (युद्ध) के दुर्धर भार को वहन करने से भग्न हैं-पराङ्मुख हो । गए हैं, अतः अत्यन्त अशक्त होकर संयम-पालन करने का संकल्प छोड़ दिया है, घोर परीषहों से पराजित हो गए हैं, अतः संयम के साथ प्रारम्भ किए गए मोक्ष-मार्ग के अवरुद्ध हो जाने से जो | सिद्धालय के कारणभूत महामूल्य ज्ञानादि से पतित हैं, जो इन्द्रियों के तुच्छ विषय-सुखों की आशा के | वश होकर रागादि दोषों से मूर्च्छित हो रहे हैं, चारित्र-ज्ञान-दर्शन स्वरूप यति-गुणों से और उनके विविध प्रकारों के अभाव से जो सर्वथा निःसार और शून्य हैं, जो अपार सांसारिक दुःखों की तथा नरक-तिर्यञ्चादि नाना दुर्गतियों की भव-परम्परा के प्रपंच में पड़े हैं, ऐसे पतित पुरुषों की कथाएँ हैं। तथा जो धीर-वीर हैं, परीषहों और काषायिक सेना के विजेता हैं, धैर्य के धनी हैं, संयम में उत्साही |
और बल-वीर्य के प्रकटीकरण में दृढ़ निश्चयी हैं, ज्ञान-दर्शन-चारित्र तथा समाधि-योग के आराधक हैं मिथ्यादर्शन-माया-निदानादि शल्यों से रहित होकर शुद्ध-निर्दोष सिद्धालय के मार्ग की ओर अभिमुख हैं, ऐसे महापुरुषों भी कथाएँ इस अंग में कथित हैं। तथा जो संयम का परिपालन कर देवेलोक में |
उत्पन्न हो देव-भवनों व देव-विमानों के अनुपम सुखों को और दिव्य बहुमूल्य, उत्तम भोग-उपभोगों | * को चिर-काल तक भोग कर कालक्रम के अनुसार वहाँ से च्युत हो पुनः यथा योग्य मुक्ति के मार्ग /
को प्राप्त कर अन्तक्रिया से समाधिमरण के समय कर्म-वश विचलित हो गए हैं, उनको देवों और - मनुष्यों के द्वारा धैर्य धारण कराने में कारण भूत, संबोधनों व अनुशासनों को, संयम के गुण और संयम से पतित होने के दोष-दर्शक दृष्टान्तों को तथा प्रत्ययों को अर्थात् बोधि के कारणभूत वाक्यों को सुनकर | शुक परिव्राजक आदि लौकिक मुनिजन भी जन्म-मरण का नाश करने वाले जिन शासन में जिस प्रकार से स्थित हुए, उन्होंने जिस प्रकार से संयम भी आराधना की, पुनः देवलोक में उत्पन्न हुए, वहाँ से । आकर मनुष्य हो जिस प्रकार शाश्वत सुख को और सर्व दु:ख-विमोक्ष को प्राप्त किया, उनकी तथा | इसी प्रकार के अन्य अनेक महापुरुषों की कथाएँ इस अंग में विस्तार पूर्वक कही गई हैं।
In Gyata Dharam Kathanga, the stories pertaining to submissive activities of consecrated people whose efforts and endeavour, sensory knowledge, courage are weak in observing the restraint vows of the Jin-Bhagwan's rule, are devoid of bearing the unbearable weight of the battles in the form of penance to be observed, who have become extrovert, hence who have left the resolution of keeping the vows up after becoming strengthless, have been defeated by frightful afflictions. They, therefore, have been lapsed from the great knowledge which is the means of attaining Sidhalaya, due to the blocking of the liberation path, started with the restoration, who are becoming faint from the vices of attachment, becoming subject in the hope of pleasure of abject pro-vice of senses, those are always zero and worthless from the attributions of conduct, knowledge and perception mode and lack of its various types, who are in the worldly affairs and entangle in birth and death cycle of various sufferings of the hell, Triyanch and mundane yonis miseries. Who are brave, who are the
听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听
समवायांग सूत्र
265
Ganipittak