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तेयमंडलं अभिसंजाइ, अंधकारे वि य णं दस दिसाओ पभासेइ १२, बहुसमरमणिजे भूमिभागे | १३, अहोसिरा कंटया भवंति १४, उउविवरीया सुहफासा भवंति १५, सीयलेणं सुहफासेणं | सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडल सव्वओ समंता-संपमजिज्जइ १६, जुत्तफुसिएणं मेहेण य निहयरयरेणूयं किजइ १७, जल-थलभासुरपभूतेणं विंटट्ठाइणा दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमित्ते पुष्फोवयारे किजइ १८, अमणुण्णाणं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाणं
अवकरिसो भवइ १९, मणुण्णाणं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाणं पाउब्भावो भवइ २०, | पच्चाहरओ वि य णं हिययगमणीओ जोयणनीहारी सरो २१, भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ २२, सा वि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सरीसिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहयभासत्ताए परिणमइ २३, पुव्वबद्धवेरा वि य णं देवासुर-नगा-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किंनरकिंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगा अरहओ पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंति २४,
अण्णउत्थियपावयणिया वि य णं आगया वंदंति २५, आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पलिवयणा हवंति २६, जओ जओ वि य णं अरहंतो भगवंतो विहरंति तओ तओ वि य णं जोयणपणवीसाएणं ईती न भवइ २७, मारी न भवइ २८, सचक्कं न भवइ २९, परचक्कं न भवइ ३०, अइवुट्ठी न भवइ ३१, अणावुट्ठी न भवइ ३२, दुब्भिक्खं न भवइ ३३, पुव्वुप्पण्णा वि य णं उप्पाइया वाहीओ खिप्पमेव उवसमंति ३४।
बुद्धों यानि तीर्थंकर भगवन्तों के चौंतीस अतिशय कहे गए हैं, यथा१. नख (नाखून), केश, श्मश्रु व रोम आदि का नहीं बढ़ना। २. रोगादि से रहित तथा मलरहित निर्मल देह-लता होना। ३. गाय के दुग्ध के समान रक्त (रुधिर) और मांस का श्वेत वर्ण होना। ४. पद्म-कमल सदृश सुगन्धित उच्छ्वास-निःश्वास होना।
चर्म-चक्षु से अदृश्य प्रच्छन्न आहार-नीहार होना। ६. आकाश में धर्मचक्र का चलना। .
आकाश में तीन छत्रों का घूमते रहना। ८. आकाश में उत्तम श्वेत चामरों का ढोला जाना।
आकाश सदृश निर्मल स्फटिकमय पाद-पीठ युक्त सिंहासन का होना। १०. आकाश में हजार लघु पताकाओं से युक्त इन्द्र-ध्वज का आगे-आगे चलना। ११. जहाँ-जहाँ भी अरहन्त-भगवन्त ठहरते-बैठते हैं, वहाँ-वहाँ यक्ष-देवों के द्वारा पत्र, पुष्प, 9
पल्लवों से व्याप्त, छत्र, ध्वजा, घंटा और पताका से युक्त श्रेष्ठ अशोक वृक्ष का निर्मित होना। चौंतीसवां समवाय चौंतीसवां समवाय
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Samvayang Sutra
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