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रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में कहा गया है कि इसमें तेतीस पल्योपम स्थिति के कितने ही नारक हैं। इसके नीचे सातवीं पृथ्वी है जिसमें काल, महाकाल, रौरुक और महारौरुक नारकावासों के नारकों 5 की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम कही गई है। उसी सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरक में नारकों की | || अजघन्य-अनुत्कृष्ट यानि जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से रहित पूरी तेतीस सागरोपम स्थिति कही गई |
है। कितने ही असुरकुमार देव तेतीस पल्योपम स्थिति के कहे गए हैं। कितने ही सौधर्म-ईशान कल्पों के देव तेतीस पल्योपम स्थिति वाले हैं।
In respect of Ratanprabha hell it has been said that the ļifespan of the hellish beings of the land is of thirty three Palyopama duration. Below it the seventh hell is situated in which the maximum life span of the infernal beings of Kaal, Mahakaal, Roarak and Maharoarak hells has been narrated thirty three Sagropama duration. In the Apritishtthan of that seventh (hell) the life span of hellish beings has been narrated without discriminating the minimum and maximum, exactly of thirty three Sagropama duration. The fiendish demons have been of thirty three Palyopama life duration. The celestial beings of Sodharma-Ishan kalpas have been of thirty three Palyopama life-span. ..
२१८-विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिएसु विमाणेसु उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई। पण्णत्ता। जे देवा सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं | अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नीससंति वा। तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ।
संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेत्तीसं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति * परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।
विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपराजित इन चार अनुत्तर विमानों में देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस | सागरोपम कही गई है। सर्वार्थसिद्ध नामक पाँचवाँ अनुत्तर महाविमान है। इसमें जो देव, देवरूप से |
उत्पन्न होते हैं उन देवों की अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति पूरे तेतीस सागरोपम कही गई है। वे देव तेतीस - अर्धमासों यानि साढ़े सोलह मासों के उपरान्त उच्छ्वास-निःश्वास अथवा आन-प्राण की क्रिया सम्पन्न ।
करते हैं। वे देव तेतीस हजार वर्षों के पश्चात् आहार की इच्छा रखते हैं यानि उनमें तेतीस हजार वर्षों
के अन्तराल से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। a वहाँ जो भव्य सिद्धिक जीव हैं, वे तेतीस भव (जन्म) ग्रहण करेंगे। तदुपरान्त वे सिद्ध-बुद्ध
होंगे। वे देव कर्मों से मुक्त होंगे, तदनन्तर वे परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे। अन्ततोगत्वा वे सर्व दुःखों का शमन (अन्त) करेंगे।
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| तेतीसवां समवाय %%%%%%%%%%
Samvayang Sutra %%%%%%%%%% %%%%%
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