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________________ महास्कन्ध, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा संस्थान, संसार और संसार के हेतु, मोक्ष और मोक्ष के हेतु, १४ गुणस्थान और लेश्या, योग और उपयोग ये सब अनावरण ज्ञान-दर्शन के विषय हैं। दोनों उपयोग केवली के एक साथ होते हैं या क्रमभावी होते हैं ? इस के विषय में प्रज्ञापना सूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न और भगवान महावीर के उत्तर विशेष मननीय हैं, जैसे कि . भगवन् ! जिस समय में केवली रत्नप्रभा पृथ्वी को जानता है, क्या उस समय रत्नप्रभा पृथ्वी को भी देखता है ? भगवान महावीर स्वामी ने कहा नहीं। फिर प्रश्न शर्कर-प्रभा पृथ्वी के विषय में, फिर वालुकाप्रभा, इसी प्रकार सब पृथ्वियों, सौधर्म आदि देवलोकों एवं परमाणु से लेकर महास्कन्ध के विषय में भी प्रश्न करते हैं। इस से प्रतीत होता है कि केवली का उपयोग कभी रत्नप्रभा में, कभी सौधर्मस्वर्ग पर और कभी वेयक पर, कभी परमाणु पर तथा कभी स्कन्ध पर पहुंचता है। यदि केवली सदा-सर्वदा सभी काल, सभी क्षेत्र, सभी द्रव्य और सभी भावों अर्थात् सभी पर्यायों को एक साथ जानता व देखता तो रत्नप्रभा आदि के अलग२ प्रश्न न किए जाते । इस से पता चलता है कि केवली का जब कभी ज्ञान में उपयोग होता है, तब एक साथ सब द्रव्य और पर्यायों पर नहीं, अपितु किसी परिमित विषय पर ही होता है। हां, उन में सर्व द्रव्य, और सर्वपर्यायों के जानने की लब्धि होती है। इसी प्रकार 'पश्यति' क्रिया के विषय में भी जानना चाहिए । इस विषय में सूत्र का वह पाठ निम्नलिखित है केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभापुढवि आगारेहि, हेऊहिं, दिटुंतेहिं, वण्णेहिं, संठाणेहिं, पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं जाणइ, तं समयं पासइ, जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ? गोयमा ? नो इण? सम8 । से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ, केवली णं इमं रयणप्पभं प्रागारेहिं जं समयं जाणइ, नो तं समयं पासइ, जं समयं पासइ नो तं समयं जाणइ ? गोयमा ! सागारे से नाणे भवइ, अणागारे से दसणे भवइ । से तेण?णं जाव नो तं समयं जाणइ, एवं जाव अहे सत्तमं, एवं सोहम्मं कप्पं जाव अच्चुअं । गेवेज्जगविमाणा, अणुत्तरविमाणा, ईसिपब्भारा पुढवी। परमाणुपोग्गलं, दुपएसियं खन्धं जाव अणन्त पएसियं खन्धं । . केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभापुढवि अणागारेहिं, अहेऊहिं अणुवमेहिं अदिट्ट तेहिं अवण्णेहिं, असंठाणेहिं, अप्पमाणेहिं, अपडोयारेहिं पासइ न जाणइ ? हंता गोयमा ! केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अग्णागारेहिं जाव पासइ, न जाणइ । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ केवली णं इमं रयणप्नं पुढविं अणागारेहिं जाव पासइ, न जाणइ ? गोयमा ! अणागारे से दंसणे भवइ, सागारे से नाणे भवइ । से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं जाव पासइ न जाणइ, एवं जाव ईसिप्पन्भारं पुढविं परमाणु पोग्गलं अणन्तपएसियं खन्धं पासइ न जाणइ । -पश्यत्ता ३० वां पद, प्रज्ञापना सूत्र । केवली णं भंते ! इत्यादि, केवलज्ञानं दर्शनं चास्यास्तीति केवली, णमिति वाक्यालंकृतौ भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् ! इमां प्रत्यक्षत उपलभ्यमानां रत्नप्रभाभिधां पृथिवीं ...। १. प्रागारेहि ति,—ाकारा भेदा यथा इयं रत्नप्रभापृथिवी त्रिकाण्डा खरकांड पंककाण्डाऽपकाण्ड भेदात्, खरकाण्डमपि षोडशभेदं, तद्यथा-प्रथमं योजनसहस्रमानं रत्नकाण्डं, तदनंतरं योजनसहस्रप्रमाणमेवं वज्रकाण्डं तस्याप्यधो योजनसहस्रमानं वैडूर्यकाण्डमित्यादि ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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