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________________ वृत्तिकृत् ने बड़े रोचक एवं नई शैली से प्रस्तुत किया है, जो निम्न प्रकार है १. स्वामी-जो मतिज्ञान के स्वामी हैं, वे ही श्रुतज्ञान के स्वामी हैं, जत्थ मइ नाणं, तत्थ सुयनाणं, जस्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणं इत्यादि जहां मतिज्ञान है, वहां श्रुतज्ञान है, जहां श्रुतज्ञान है, वहां मतिज्ञान है । इस प्रकार दोनों में स्वामित्व की दृष्टि से समानता है। ___२. काल-मतिज्ञान का काल (स्थिति) जितना है. उतना ही श्रुतज्ञान का है। इन दोनों का काल सहभावी है। ये दोनों ज्ञान एक जीव में निरन्तर अधिक-से-अधिक ६६ सागरोपम से कुछ अधिक काल तक अवस्थित रह सकते हैं, तत्पश्चात् जीव केवलज्ञान को प्राप्त करता है या मिथ्यात्व में प्रविष्ट हो जाता है या मिश्रगुणस्थान में अन्तर्महर्त के लिए प्रविष्ट हो जाता है और उक्त दोनों गुणस्थानों में दोनों ज्ञान अज्ञान के रूप में परिणत हो जाते हैं । अतः काल की अपेक्षा दोनों में समानता है। . ३ कारण -जैसे इन्द्रिय और मन यह मतिज्ञान के निमित हैं, वैसे ही श्रुतज्ञान के भी उपर्युक्त छः ही कारण हैं । अत: कारण की दृष्टि से दोनों में समानता है। ४. विषय-जैसे आदेश से मतिज्ञान के द्वारा सर्व द्रव्यों को जाना जाता है, वैसे ही श्रुतज्ञान के द्वारा भी जाना जाता है । जैसे मतिज्ञान के द्वारा द्रव्य. क्षेत्र, काल और भाव इन विषयों को जाना जाता है. वैसे ही श्रुतज्ञान के द्वारा भी, किन्तु सर्वपर्यायों का विषय मति-श्रुत का नहीं है, इस दृष्टि से दोनों में समानता है। ५. परोक्षत्व-जैसे मतिज्ञान परोक्ष प्रमाण है, वैसे ही श्रुतज्ञान भी नन्दीसूत्र में', तथा तत्त्वार्थसूत्र में मति और श्रतज्ञान दोनों को परोक्ष प्रमाण में अन्तनिहित किया है। इस अपेक्षा से भी दोनों में समानता पाई जाती है। जैसे कि कहा भी है जं सामि-काल-कारण, विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाई। तब्भावे सेसाणि य, तेणाईए मइ-सुयाई ।। आदि के तीन ज्ञान में परस्पर साधर्म्य अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि मति-श्रुत के अनन्तर अवधिज्ञान क्यों कहा है ? मनःपर्यवज्ञान क्यों नहीं कहा ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि इन दोनों का जितना निकटतम सम्बन्ध अवधिज्ञान के साथ है, उतना मनःपर्यव के साथ नहीं। तीनों में परस्पर क्या समानता है? अब इसका सविस्तार विवेचन किया जाता है १. स्वामी-उक्त तीनों ज्ञान के स्वामी चारों गति के संज्ञी पंचेन्द्रिय हो सकते हैं, तीनों ज्ञान नविरति सम्यग्दृष्टि तथा साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविकाओं को तथा देव-नारकी एवं समनस्कतियंच, "न सब को हो सकते हैं। जो अवधिज्ञान के स्वामी हैं, वे मति-श्रुत के भी। अतः स्वामित्व की अपेक्षा से भी उक्त तीनों ज्ञान में साम्य है। २ काल-जितनी स्थिति उत्कृष्ठ मति-श्रत की बतलाई है. उतनी अवधिज्ञान की भी । एक जीव १. देखो सूत्र २४ बां। २. तत्त्वार्थ सूत्र अ०१ सू० ११ ॥
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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