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________________ a चारित्र और तप ये इहभविक ही हैं, किन्तु ज्ञान साधक अवस्था में मोक्ष का मार्ग है और सिद्ध अवस्था में यह आत्मगुण है । ज्ञान इहभविक भी है, पारभविक भी और सादि अनन्त भी। नन्दी सूत्र में पांच ज्ञान का स्वरूप वणित है। ज्ञानगुण जीवास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता। ज्ञान स्व-प्रकाशक भी है और पर-प्रकाशक भी । पारमार्थिक हित-अहित, अमृत-विष, सन्मार्ग-कुमार्ग का ज्ञान सम्यग्ज्ञान से ही हो सकता है, अज्ञान से नहीं । कुत्सित ज्ञान को अज्ञान कहते हैं। वह आत्मोत्थान में अकिंचित्कर है, अज्ञान किसी को भी प्रिय नहीं, किन्तु ज्ञान सब को प्रिय है । ज्ञान की परिपक्वावस्था विज्ञान है और विज्ञान की परिपक्वावस्था को चारित्र कहते हैं। चारित्र आत्मविशुद्धि का अमोघ साधन है । सम्यग्दर्शन कारण है और ज्ञान कार्य है, आत्मशुद्धि के शेष सभी सावनों का मूल कारण ज्ञान है। इसीलिए नन्दीसूत्र को 'मूल' कहते हैं । सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान विश्व के अनन्त-अनन्त पदार्थ जैनदर्शनकारों ने नवतत्त्वो में विभाजित कर दिए हैं । वे नव तत्त्व सदाकाल भावी हैं, उनसे कोई तत्त्व बाहिर नहीं रह जाता। सभी का अन्तर्भाव नौ में ही हो जाता है। जैसे कि जीव, अजीव पुण्य, पाप, आश्रव, संवर बन्ध, निर्जरा और मोक्ष । पंचास्तिकाय का अन्तर्भाव भी उक्त नौ में ही हो जाता है। इनका स्वरूप याथातथ्य जानने व समझने के लिए प्रमाण-नय, निक्षेप तथा असाधारण लक्षण हैं । जीव चेतन स्वरूप है, वह न अन्य द्रव्यों के गुण ग्रहण करता और न अपने गुणों से विहीन होता है। उसमें ज्ञानशक्ति सदाकाल से विद्यमान है। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से उसका महाप्रकाश आवृत्त हो रहा है, किन्तु फिर भी ज्ञानप्रकाश सर्वथा आवृत्त नहीं होता, यत् किंचित् सदासर्वदा अनावृत्त ही रहता है, इसको सर्वतो जघन्य क्षयोपशम भी कहते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अनन्त प्रकार का है। ज्यों-ज्यों क्षयोपशम अधिक होता है, त्यों-त्यों ज्ञान की मात्रा बढ़ती ही जाती है। इस प्रकार ज्ञान की न्यून-अधिकता से या ह्रास-विकास से क्रमशः अज्ञानी व ज्ञानी जैनदर्शन स्वीकार नहीं करता। वह एक डी० लिट्० को भी अज्ञानी मानता है और किसी अपठित व्यक्ति को भी ज्ञानी मानता है। इस मान्यता के पीछे दर्शन मोह और चारित्र मोह की ऐसी प्रकृतियों को स्वीकार करता है, जिनके कारण प्रचुर मात्रा में ज्ञान होते हुए भी अज्ञानी मानता है, जैसे नेत्रों की दृष्टि ठीक होने पर भी गलत चश्मा लगा देने से ग़लत नज़र आता है । ठीक वैसे ही मिथ्यात्व के उदय से ज्ञान-दृष्टि विपरीत हो जाती है । जहाँ तक मिथ्यात्व का उदय भाव है, वहाँ तक जीव अज्ञानी ही बना रहता है और उस के सर्वथा उदयाभाव में ज्ञानी । सम्यग्दर्शन के होते हुए जीव ज्ञानी कहलाता है। सम्यग्दर्शन का साहचर्य सम्यग्ज्ञान से है और मिथ्यात्व का साहचर्य मिथ्याज्ञान से है। अदेव में देव बुद्धि, कुगुरु में गुरु, धर्माभास में धर्म, कुशास्त्र में सच्छास्त्र बुद्धि अथवा देव में अदेव बुद्धि, सुगुरु में कुगुरु, धर्म में अधर्म, सत्शास्त्र में कुशास्त्र बुद्धि रखना, ये सब मिथ्यत्व के लक्षण हैं। उस समय मति, श्रत और अवधि ये तीनों अज्ञान कहलाते हैं और अज्ञान का फल संसार है। मिथ्याज्ञान उन्मार्ग की ओर प्रवृत्ति कराता है, संसार का तथा कर्म बन्ध का मूलकारण है और अनन्त दुःख का हेतु है । जब कि सम्यग्ज्ञान सन्मार्ग की ओर प्रवृत्ति कराता है, मोक्ष एवं अनन्त सुख का हेतु है । अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मोत्थान, आत्मविकास और सभी विकारों का शमन हो, वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है। संसार वृद्धि, एवं दुर्गति में पतन कराने वाला ज्ञान, मिथ्याज्ञान कहलाता है। हो सकता है, क्षयोपशम की न्यूनता से तथा
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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