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नन्दीसूत्रम् सर्व प्रथम साधक विनय युक्त होकर गुरुदेव के चरणकमलों में वन्दन करे, फिर उनके मुखारविन्द से निकले हुए सुवचनरूप सत्र व अर्थ सुनने की जिज्ञासा व्यक्त करे। जब तक जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती, तब तक व्यक्ति कुछ पूछ भी नहीं सकता।
२. पडिपुच्छइ-सूत्र या अर्थ सुनने पर यदि शंका उत्पन्न हो जाए, तो सविनय मधुर वचनों से गुरु के मन को प्रसन्न करते हुए गौतम स्वामी की तरह पूछ कर मन में रही हुई शंका दूर करनी चाहिए । श्रद्धा पूर्वक गुरुदेव के समक्ष पूछते रहने से तर्क शक्ति बढ़ती है और श्रुतज्ञान शंका-कलंक-पंक से निर्मल हो जाता है।
३. सुणइ-पूछने पर जो गुरुजन उत्तर देते हैं, उसे दत्तचित्त होकर सुने । जब तक शंका दूर न हो जाए, तब तक सविनय पूछताछ और श्रवण करता ही रहे, किन्तु अधिक बहस में न पड़कर गुरुजनों से संवाद करना चाहिए, विवाद के झंझट में न पड़े।
४. गिरहइ-सुन कर सूत्र, अर्थ तथा किए हुए समाधान तो हृदयंगम करे । अन्यथा सुना हुआ वह ज्ञान विस्मृत हो जाता है।
५. ईहते-हृदयंगम किए हुए सूत्र व अर्थ का पुनः पुनः चिन्तन-मनन करे ताकि वह ज्ञान मन का विषय बन सके । पर्यालोचन किए बिना धारणा दृढतम नहीं हो सकती।
६. अपोहए-चिन्तन-मनन करके अनुप्रेक्षा बल से सत् और असत् एवं सार और असार का निर्णय करे । छानबीन किए बिना चिन्तन करना भी कोई महत्त्व नहीं रखता, जैसे तुष से धान्य कणों को अलग किया जाता है, वैसे ही चिन्तन किए हुए श्रुतज्ञान की छानवीन करे।
७. धारेइ-निर्णीत-विशुद्ध सार-सार को धारण करे, वही ज्ञान जैन परिभाषा में विज्ञान कहाता है, विज्ञान के बिना ज्ञान अकिंचित्कर है, इसी को अनुभवज्ञान भी कहते हैं।
८. करेइ वा सम्म-विज्ञान के महाप्रकाश से ही श्रुतज्ञानी चारित्र की आराधना सम्यक प्रकार से कर सकता है । सन्मार्ग में संलग्न होना, चारित्र की आराधना में क्रिया करना, कर्मों पर विजय पाना ही वास्तव में श्रुतज्ञान का अन्तिम फल है । वुद्धि के उक्त आठ गुण सभी क्रियारूप हैं, गुण क्रिया को ही कहते है, निष्क्रिय को नहीं। ऐसा इस गाथा से ध्वनित होता है।
श्रवणविधि शिष्य जब सविनय गुरु के समक्ष बद्धाञ्जलि सूत्र व अर्थ सुनने के लिए बैठता है तब किस विधि से सुनना चहिए ? अब सूत्रकार उसी श्रवण विधि का उल्लेख करते हैं। बिना विधि से सुना हुआ ज्ञान प्रायः व्यर्थ जाता है।
१. मूग्रं-जब गुरुदेव सूत्र या अर्थ सुनाने लगें, तब उनकी वाणी मूक-मौन रह कर ही शिष्य को सुननी चाहिए, अनुपयोगी इधर-उधर की बातें नहीं करनी चाहिए।
२. हुँकार–सुनते हुए बीच-बीच में हुंकार भी मस्ती में करते रहना चाहिए ।
३. बाढ कार-भगवन् ! आप जो कुछ कहते हैं, वह सत्य है, या तहत्ति शब्द का प्रयोग यथा समय करते रहना चाहिए।