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________________ : ३५० नन्दीसूत्रम् - हेतवः, अनन्ता अहेतवः. अनन्तानि कारणानि, अनन्तान्यकारणानि, अनन्ता जोवाः, अनन्ता अजीवाः, अनन्ता भवसिद्धि का, अनन्ताः अभवसिद्धिकाः, अनन्ता सिद्धाः, अनन्ता असिद्धाः प्रज्ञप्ताः । १. भावाऽभावौ हेत्वहेतू, कारणाऽकारणे चेव । जीवा अजीवा भविका अभविकाः सिद्ध। असिद्धाश्च ।।१२।। भावार्थ-इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक में अनन्त जीवादि भाव-पदार्थ, अनन्त अभाव, अनन्त हेतु, अनन्त अहेतु, अनन्त कारण, अनन्त अकारण, अनन्त जीव, अनन्त अजीव, अनन्त भवसिद्धिक, अनन्त अभवसिद्धिक, अनन्त सिद्ध और अनन्त असिद्ध कथन किये गये हैं। भाव और अभाव, हेतु और अहेतु, कारण-अकारण, जीव-अजीव, भव्य-अभव्य, सिंद्ध, असिद्ध, इस प्रकार संग्रहणी गाथा में उक्त विषय संक्षेप में उपदर्शित किया गया है । टीका-इस सूत्र में सामान्यतया बारह अङ्गों का वर्णन किया गया है । इस बारह अङ्गरूप-गणिपिटक में अनन्त सद्भवावों का वर्णन किया गया है । इसके प्रतिपक्ष अनन्त अभाव पदार्थों का वर्णन किया है। जैसे सर्व पदार्थ अपने स्वरूप में सद्रूप हैं और परपदार्थ की अपेक्षा असद्रूप हैं, जैसे घट-पट आदि पदार्थों में परस्पर अन्योऽन्याभाव है यथा जीवोजीवात्मनाभावरूपोऽजीवात्मना च प्राभाव रूपः। जीव में अजीवत्व का अभाव है और अजीव में जीवत्व का अभाव है, इत्यादि । हेत-अहेतु अनन्त हेत हैं और अहेत भी अनन्त हैं, जो अभीष्ट अर्थ की जिज्ञासा में कारण हो, वह हेतु कहलाता है-यथा हिनोति-मयति जिज्ञासितधर्माविशिष्टार्थमिति हेतु ते चानन्ताः, तथाहि वस्तुनोऽनन्ता धर्मास्ते च तत्प्रतिबद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकास्ततोऽनन्ता हेतवो भवन्ति, यथोक्तप्रतिपक्षभूता . अहेतवः । कारण-अकारण-जैसे घट का उपादान कारण मृत्पिण्ड है तथा निमित्त दण्ड, चक्र, चीवर एवं कुलाल है और पट का उपादान कारण तन्तु हैं तथा निमित्तकारण खड्डी आदि बुनती के साधन, जुलाह वगैरह हैं। ये घट-पट परस्पर स्वगुण की अपेक्षासे कारण हैं और परगुणकी अपेक्षासे अकारण हैं । अनन्तजीव हैं और अनन्त अजीव हैं । भवसिद्धिक जीव भी अनन्त है एवं अभवसिद्धिक भी अनन्त । जो अनादि पारिणामिक भाव होते हुए सिद्धिगमन की योग्यता रखते हैं, वे भव्य कहलाते हैं, इसके विपरीत अभव्य, वे जीव भी अनन्त है। वास्तव में भव्यत्व-अभव्यत्व न औदयिकभाव है, न औपशमिक, न क्षायोपशमिक और न क्षायिक, इनमें से किसी में भी इनका अन्तर्भाव नहीं होता । अनन्तसिद्ध हैं और अनन्त संसारी जीव हैं। द्वादशाङ्ग गणिपिटक में भावाभाव, हेतु-अहेतु, कारण-अकारण, जीव-अजीव भव्य-अभव्य, सिद्ध-असिद्धइनका वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। द्वादशाङ्ग-विराधना-फल मूलम्-इच्चेइग्रं दुवालसंगं गणिपिडगं तीए काले अणंता जीवा आणाए 5 विराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरिट्टिसु । -
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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