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________________ ३२८ नन्दीसूत्रम् १२. श्रीदृष्टिवाद श्रुत मूलम्-से किं तं दिट्ठिवाए ? दिट्ठिवाए णं सव्व-भाव परूवणा आघविज्जइ। से समासो पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा १. परिकम्मे, २. सुत्ताई, ३. पुन्वगए, ४. अणुप्रोगे, ५. चूलिया । छाया-अथ कोऽयं दृष्टिवादः ? दृष्टिवादे सर्व-भाव-प्ररूपणा आख्यायते, सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा १. परिकर्म, २. सूत्राणि, ३. पूवर्गतम्, ४. अनुयोगः, ५. चूलिका । भावार्थ-शिष्य ने पूछा-भगवन् ! वह दृष्टिवाद क्या है ? आचार्य उत्तर में बोले-भद्र ! दृष्टिवाद-सब नयदृष्टियों को कथन करने वाले श्रुत में समस्त भावों की प्ररूपणा की है। वह संक्षेप में पांच प्रकार का है, जैसे-१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वगत, ४. अनुयोग और ५. चूलिका। टीका-इस सूत्र में दृष्टिवाद का अतिसंक्षिप्त परिचय दिया गया है। दृष्टिवाद अङ्गश्रुत जैनागमों में सबसे महान है। जो कि वर्तमान काल में अनुपलब्ध है। इसे व्यवच्छेद हुए अनुमानतः पन्दरह सौ वर्ष हो चुके हैं। 'दिट्ठिवाय' शब्द प्राकृत का है, इसकी संस्कृत छाया 'दृष्टिवाद' और 'दृष्टिपात' बनती है। दोनों ही अर्थ यहां संगत हो जाते हैं । दृष्टि शब्द अनेक-अर्थक है । नेत्र शक्ति, ज्ञान, समझ, अभिमंत,. गक्ष, नय-विचारसरणि, दर्शन इत्यादि अर्थों में दृष्टि शब्द प्रयुक्त होता है । वाद का अर्थ होता हैकथन करना। विश्व में जितने भी दर्शन हैं, नयों की जितनी पद्धतियाँ हैं, जितना भी अभिलाप्य श्रुतज्ञान है, उन सबका समावेश दृष्टिवाद में हो जाता है। सारांश यह हुआ कि जिस शास्त्र में मुख्यतया दर्शन का । विषय वर्णित हो. उस शास्त्र का नाम दृष्टिवाद है। दृष्टिवाद का व्यवच्छेद सभी तीर्थंकरों के शासन में होता रहा है, किन्तु मध्य के आठ तीर्थंकरों के शासन में कालिक श्रुत का भी व्यवच्छेद हो गया था। कालिक श्रुत के व्यवच्छेद होने से भावतीर्थ के लुप्त होने का भी प्रसंग आया। भगवान महावीर के द्वारा प्रवत्तित दृष्टिवाद पंचम आरक में सहस्र वर्ष पर्यन्त रहा, तत्पश्चात् वह सर्वथा लुप्त हो गया। इसके विषय में वृत्तिकार लिखते हैं - "सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि लेशतो यथागतसम्प्रदायं किञ्चिद् व्याख्ययते ।" वृत्ति का सारांश है—यद्यपि दृष्टिवाद का प्रायः व्यवच्छेद हो गया है, तदपि श्रुतिपरंपरा से उसकी अंश मात्र व्याख्या की जाती है । सम्पूर्ण दृष्टिवाद पांच भागों में विभक्त है अथवा उसके पांच अध्ययन हैं, जैसे कि परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका । इनमें सबसे पहले योग्यता प्राप्त करने के लिए परिकर्म का वर्णन किया गया है, जैसे--- १. परिकर्म मूलम्-से किं तं परिकम्मे ? परिकम्मे सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा१. सिद्धसेणियापरिकम्मे, २. मणुस्ससेणियापरिकम्मे, ३. पुट्ठसेणियापरि
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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