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________________ ३२४ मन्दीस्त्रम् नाना प्रकार की एकान्त दृष्टियों का निराकरणपूर्वक शुद्धिकरके छः द्रव्य, नौ पदार्थों का जो प्ररूपण करती . है, उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं। जिसमें पहले पर-समय के द्वारा स्व-समय में दोष बतलाए जाते हैं। तदनन्तर पर-समय की आधार भूत अनेक प्रकार की एकान्त दृष्टियों का शोधन करके स्व-समय की स्थापना की जाती है और छः द्रव्य, नौ पदार्थों का प्ररूपण किया जाता है, उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं। पुण्य के फल का जिसमें वर्णन हो, जैसे कि तीर्थकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, विद्याधर और देवों की ऋद्धियां ये सब पुण्य के फल हैं। इस प्रकार विस्तार से धर्म के फल का वर्णन करने वाली संवेगनी कथा है। पाप के फल नरक, तियंच, कुमानुष में जन्म-मरण, एवं जरा-व्याधि, वेदना-दारिद्र आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं। वैराग्य जननी कथा को निवेदनी कथा कहते हैं। इस कथा से श्रोता की संसार, शरीर तथा भोगों से निवृत्ति होती है। इन कथाओं के प्रतिपादन करते समय जो जिन वचन को नहीं जानता, जिसका जिन वचन में अभी तक प्रवेश नहीं हुआ, ऐसे वक्ता को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिन श्रोताओं ने स्व-समय के रहस्य को नहीं जाना, वे पर-समय का प्रतिपादन करने वाली कथाओं के सुनने से व्याकुलित चित्त होकर संभव है मिथ्यात्व को स्वीकार कर लें। अतः स्वसमय के रहस्य को नहीं जानने वाले पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश न देकर शेष तीन कथाओं का ही उपदेश देना चाहिए। उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्व-समय को भली-भान्ति समझ लिया है, जो पुण्य और पाप को समझता है और जिस तरह हड्डियों के मध्य में रहने वाला रस (मज्जा) हड्डी से संसक्त होकर ही शरीर में रहता है, उसी तरह जो जिन-शासन में अनुरक्त है, जिनवाणी में जिसको किसी प्रकार को विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रति से विरक्त है और जो तप-शील तथा विनय से युक्त है, ऐसे कथावाचक को ही विक्षेपणी कथा करने का अधिकार है। उसके लिए यह अकथा भी कथा रूप हो जाती है। प्रश्नव्याकरण नामक अंग प्रश्नके अनुसार ही विषय निरूपण करने वाला है। ११. श्रीविपाकश्रुत मूलम्-से किं तं विवागसुग्रं ? विवागसुए णं सुकड-दुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविज्जइ । तत्थ णं दस दुह-विवागा, दससुह-विवागा। से किं तं दुह-विवागा? दुह-विवागेसु णंदुह-विवागाणं नगराइं, उज्जाणाई, वणसंडाई, चेइमाइं, रायाणो, अम्मा-पियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइअ-परलोइया इड्डि-विसेसा, निरयगमणाई, संसारभव-पवंचा, दुहपरंपरायो, दुकुलपच्चायाईओ, दुलहबोहियत्तं पापविज्जइ, से त्तं दुहविवागा। छाया-अथ किं तद् विपाकश्रुतम् ? विपाकश्रुते सुकृत-दुष्कृतानां कर्माणां फलविपाक आख्यायते । तत्र दश दुःख-विपाकाः, दश सुख-विपाकाः ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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