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________________ यदि नन्दी को ज्ञानप्रवाद पूर्व की यत् किंचित् झांकी मान लिया जाए तो कोई अनुचित न होगा, क्योंकि इसका मूलस्रोत उक्त पूर्व ही है । उस युग में जो ज्ञानप्रवादपूर्व के अध्ययन करने में असमर्थ थे, वे भी इस सूत्र के द्वारा पांच ज्ञान का ज्ञान सुगमता पूर्वक कर सकें, संभव है, देववाचकजी ने उन्हीं को लक्ष्य में रखकर पांच ज्ञान का संकलन किया हो। परमार्थ-ज्ञानी मन्दमति शिष्यों का उद्धार जैसे हो सके, वैसा सरल एवं सुगम मार्ग प्रदर्शित करते हैं, हो सकता है, अन्य निमित्तों की तरह नन्दी की रचना में यह भी एक मुख्य निमित्त हो। 'नन्दी' शब्द की व्याख्या उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार व्याख्या के मुख्य साधन हैं । इनमें नन्दीसूत्र का अन्तर्भाव कहां? और किस में हो सकता है ? इसका उत्तर यथास्थान व्याख्या से ही मिल जाएगा। - 1. उपक्रम-जो अर्थ को अपने समीप करता है, वह उपक्रम कहलाता है। इसके पांच भेद हैंआनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार, इन पांचों से जिस शब्द की व्याख्या की जाती है, उसे उपक्रम कहते हैं। अानुपूर्वी-इसके तीन भेद हैं --पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और अनानुपूर्वी। मति-श्रुत-अवधि-मन:• पर्यव और केवलज्ञान इस गणनानुसार जो सूत्र में क्रम रखा गया है, इसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं । आगे चलकर अवधि-मनःपर्यव-केवल-मति और श्रुत इस क्रम से व्याख्या की गई है, इस दृष्टि से अनानुपूर्वी का भी .. अधिकार है, किन्तु पश्चादानुपूर्वी का केवलज्ञान-मनःपर्यव-अवधि-श्रुत और मति, यहां इसका अधिकार नहीं है। · नाम-नामोपक्रम के दस भेद होते हैं, जैसे कि गौण्यपद, नोगौण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, प्राधान्यपद, अनादि सिद्धान्तपद, नामपद, अवयवपद, संयोगपद और प्रमाणपद । ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है । जब उससे वह समृद्धशाली बनता है, तब नियमेन आनन्दानुभव होता है । इसलिए इस सूत्र का नन्दी नाम गुणसंपन्न होने से गौण्यपद में, इसमें ज्ञान की मुख्यता है, इसलिए प्राधान्यपद में; पांचज्ञान जीवास्तिकाय में ही हैं, अन्य द्रव्य में नहीं। अत: अनादि सिद्धान्तपद में अन्तर्भाव होता है। शेष पदों का यहां निषेध समझना चाहिए । प्रमाण-इस उपक्रम के चार भेद हैं, जैसे कि-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण, इनमें से इस सूत्र में भाव प्रमाण का अधिकार है। भावप्रमाण के तीन भेद हैं-गुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण। इनमें से गुणप्रमाण के दो भेद हैं-जीवगुण-प्रमाण और अजीव-गुणप्रमाण । जीवगुण प्रमाण के तीन भेद हैं-शान णप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाण और चारित्रगुणप्रमाण । इनमें ज्ञानगुणप्रमाण का अधिकार है, शेष अधिकारों का निषेध है। ज्ञानगुण-प्रमाण के चार भेद हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान उपमान और आगम, इनमें से इस सत्र का अन्तर्भाव आगम में होता है। अन्य किसी प्रमाण में नहीं, क्योंकि नन्दीसूत्र आगम है । वक्तव्यता- इस आगम में स्वसमय की मुख्यता है, परसमय का विवरण अधिक नहीं है, तदुभय समय का भी किंचिद् वर्णन है। - अर्थाधिकार-इस नन्दीसूत्र में पांचज्ञान का अधिकार है । अर्थात् पाँच ज्ञान का विस्तृत विवेचन करना, यही इसके अधिकार है। इसके अनन्तर नन्दी का विवेचन निक्षेप से किया जाता है।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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