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नन्दीसूत्रम्
स एवमात्मा, एवं ज्ञाता एवं विजाता, एवं चरण- करण- प्ररूपणाऽऽख्यायते स एवं समवायः । सूत्र ।।४६॥
भावार्थ - शिष्य ने पूछा - भगवन् ! समवाय श्रुत का विषय क्या है ? आचार्य उत्तर में बोले – समवायाङ्गसूत्र में यथावस्थित रूप से जीव, अजीव और जीवाजीव आश्रयण किए जाते हैं। स्वदर्शन, परदर्शन और स्व-परदर्शन आश्रयण किए जाते हैं । लोक, अलोक और लोकालोक आश्रयण किए जाते हैं ।
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समवायाङ्ग एक वृद्धि हु सौ स्थान तक भावों की प्ररूपण की गई है और द्वादशाङ्गगणिपिटक का संक्षेप में परिचय आश्रयण किया गया है अथात् वर्णित है । .
समवायङ्ग में परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात श्लोक, संख्यात निर्युक्तिएं, संख्यात संग्रहणिएं तथा संख्यात प्रतिपत्तिएं हैं ।
वह अङ्ग की अपेक्षा से चौथा अङ्ग है । एक श्रुतस्कन्ध, एक अध्ययन, एक उद्देशनकाल, और एक समुद्देशन काल है । पदपरिमाण एक लाख चौंतालीस हजार है । संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर तथा शाश्वत-कृत- निबद्धनिकाचित जिन प्ररूपित भाव, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन, और उपदर्शन से सुस्पष्ट किए गए हैं।
समवायाङ्ग का अध्येता तदात्मरूप, ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार समवायाङ्ग में चरण-करण की प्ररूपण की गयी है । यह समवायाङ्ग का विषय है | सूत्र ४६ ॥
टीका - इस सूत्र में समवायाङ्गश्रुत का संक्षिप्त परिचय दिया है। जिसमें जीवादि पदार्थों का निर्णय हो, उसे समवाय कहते हैं, जैसे कि सम्यगवायो – निश्चयो जीवादीनां पदार्थानां यस्मात्स समवायः जो सूत्र में 'समासिज्जन्ति' इत्यादि पद दिए हैं, उनका यह भाव है कि सम्यग् यथावस्थित रूप से, बुद्धि द्वारा ग्राह्य अर्थात् ज्ञान से ग्राह्य पदार्थों को स्वीकार किया जाता है अथवा जीवादि पदार्थ कुप्ररूपण से निकाल कर सम्यक् प्ररूपण में समाविष्ट किए जाते हैं, जैसे कि कहा भी है-- “समाश्रीयन्ते समिति सम्यग् यथावस्थिततया आायन्ते बुध्या स्वीक्रियन्ते अथवा जीवाः समस्यन्ते कुप्ररूपणाभ्यः समाकृष्य सम्यक् प्ररूपणायां प्रक्षिष्यन्ते ।”
इस सूत्र में जीव, अजीव तथा जीवाजीव, जैन दर्शन, इतरदर्शन, लोक, अलोक इत्यादि विषय स्पष्ट रूप से वर्णन किए गए हैं। फिर एक अंक से लेकर सौ अंक पर्यन्त जो-जो विषय जिस-जिस अंक में गर्भित हो सकते हैं, उनका सविस्तर रूप से वर्णन किया गया है।
इस श्रुताङ्ग में २७५ सूत्र हैं, अन्य कोई स्कन्ध, वर्ग, अध्ययन, उद्देशक आदि रूप से विभाजित नहीं है । स्थानाङ्ग की तरह इसमें भी संख्या के क्रम से वस्तुओं का निर्देश निन्तर शत पर्यन्त करने के चात् दो सौ, तीन सो, इसी क्रम से सहस्र पर्यन्त विषयों का वर्णन किया है, जैसे कि पार्श्वनाथ भगवान्