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. द्वादशाङ्ग-परिचय
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नहीं बनता जा
- टीका-अब सूत्रकार सूत्रकृताङ्ग का संक्षिप्त परिचय देते हैं। 'सूच' सूचायां धातु से 'सूचकृत' बनता है, इसका आशय यह है कि जो सभी जीव आदि पदार्थों का बोध कराता है, वह सूचकृत है । अथवा सचनात् सत्रम् जो मोहनिद्रा में सुप्त प्राणियों को जगाए अथवा पथभ्रष्ट हुए जीवों को सन्मार्ग की ओर संकेत करे, वह सूचकृत कहालाता है। विखरे हुए मुक्ता या मणियों को सूत्र-धागे में पिरोकर जैसे एकत्रित किया जाता है, वैसे ही जिसके द्वारा विभिन्न विषयों को तथा मत-मतान्तरों की मान्यताओं को एककिया जाता है, उसे भी सूत्रकृत कहते हैं । यद्यपि सभी अंगसूत्ररूप हैं, तदपि रूढिवश यही अङ्गसूत्र सूत्रकृताङ्ग कहलाता है।
इस सूत्र में लोक, अलोक और लोकालोक का स्वरूप प्रतिपादन किया गया है । शुद्ध जीव परमात्मा है, तथा शुद्ध अजीव जड़ पदार्थ और जीवजीव अर्थात् संसारी जीव शरीर से युक्त होने से जीवाजीव कहलाते हैं। जैसे एक ओर शुद्ध स्वर्ण है, और दूसरी ओर शुद्ध ताम्बा है, तीतरी ओर उभयात्मक है।
वैसे ही सूक्ष्म या स्थूल शरीर में रहा हुआ जीव उभयात्मक कहलाता है, क्योंकि शरीर जड़ है और आत्मा || चेतनस्वरूप है। इसलिए स्थानाङ्ग सूत्र के दूसरे स्थान में संसारी जीवों को अपेक्षाकृत रूपी भी कहा है।
फिर भी न जीव जड़ बनता है और न जड़ कभी जीव ही बनता है। जैसे स्वर्ण और ताम्बे को एक साथ |. कुठाली में ढाल कर रखा जाए और यदि वे हजारों-लाखों-वर्षों तक एकमेक मिले रहें तो भी स्वर्ण, ताम्बा
नहीं बनता और न ताम्बा स्वर्ण ही बनता है। इसी तरह सभी द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में ही अवस्थित हैं, न दूसरे के स्वरूप को अपनाते हैं और न अपना छोड़ते हैं, इसी में द्रव्य का द्रव्यत्व है। . इस सूत्र में स्वदर्शन, अन्य दर्शन, तथा उभयदर्शनों का विवेचन किया गया है । अन्य दर्शनों का अन्तर्भाव यदि संक्षेप में किया जाए तो क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी. इन चार में हो सकता है । संक्षेप में उनका विवरण इस प्रकार है
१. क्रियावादी-जो प्रायः बाह्य क्रियाकाण्ड के पक्षपाती, नव तत्त्वों को कथंचित् गलत समझने वाले और धर्म के आन्तरिक स्वरूप से बेभान हैं, ऐसे विचारकों को क्रियावादी कहते हैं । इनकी गणना प्रायः आस्तिकों में होती है।
२. अक्रियावादी--जो नव तत्त्व या चारित्ररूप क्रिया के निषेधक हैं, वे प्रायः नास्तिक कहलाते हैं । स्थानाङ्गसूत्र के आठवें स्थान में आठ प्रकार के अक्रियावादियों का स्पष्टोल्लेख मिलता है, जैसे कि
१. एकवादी-कुछ एक विचारकों का मन्तव्य है कि सिवाय जड़ पदार्थ के विश्व में अन्य कुछ नहीं, जड़-ही-जड़ है । आत्मा, परमात्मा या धर्म नामक कोई वस्तु नहीं है । शब्दाद्वैतवादी सब कुछ शब्द ही को मानते हैं। ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य सब द्रव्यों का निषेध करते हैं—एकमेवाद्वितीयंब्रह्म जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जलाशयों और दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थों में प्रतिबिम्बित होता है, वैसे ही सब शरीरों में एक ही आत्मा है, जैसे कहा भी है--
"एक एव हि भूतात्मा, भूते-भूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधाश्चैव, दृश्यते जलचन्द्र वत् ।।" उपरोक्त सभी वादियों का समावेश एकवादी में हो जाता है । २. अनेकवादी-जितने अवयव हैं, उतने ही अवयवी हैं, जितने धर्म हैं, उतने ही धर्मी हैं, जितने