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द्वादशाङ्ग परिचय
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नियुक्ति - जो युक्ति निश्चय पूर्वक अर्थ को प्रतिपादन करने वाली है, उसे नियुक्ति कहते हैं, ऐसी निर्युक्तियाँ भी संख्यात ही हैं ।
प्रतिपत्ति—द्रव्यादि पदार्थों की मान्यता का, अथवा प्रतिमा आदि अभिग्रह विशेष का जिस में उल्लेख हो, उसे प्रतिपत्ति कहते हैं, वे भी संख्यात ही हैं ।
उद्दे शनकाल -- अङ्गसूत्र आदि का पठन-पाठन करना। किसी भी शास्त्र का शिक्षण गुरु की आज्ञा से होता है, ऐसा शास्त्रीय नियम है । तदनुसार जब कोई शिष्य गुरु देव से पूछता है कि गुरुदेव ! मैं कौन सा सूत्र पढूं ? तवं गुरु आज्ञा देते हैं—- आचाराङ्ग व सूत्रकृताङ्ग पढो, गुरु की इस सामान्य आज्ञा को उद्देशकाल कहते हैं ।
समुद्दे शनकाल- आचाराङ्गसूत्र के पहले श्रुतस्कन्ध का अमुक अध्ययन पढो, इस प्रकार की विशेष आज्ञा को समुद्देशनकाल या समुद्देश कहते हैं ।
इस सूत्र के दो श्रुतस्कन्ध हैं, पच्चीस अध्ययन हैं, पचासी उद्देशन काल हैं और पचासी समुद्देशन काल । पूर्व काल में गुरुजन अपने शिष्यों को शास्त्र की वाचना कण्ठाग्र ही दिया करते थे । अतः अध्ययन आदि विभाग के अनुसार नियत दिनों में सूत्रार्थ प्रदान की व्यवस्था उन्होंने निर्माण की, जिस को उद्देशनकाल या समुद्देशनकाल भी कहते हैं ।
पद – इस आचार शास्त्र में अठारह हजार पद हैं। 'पद' शब्द चार अर्थों में प्रयुक्त होता है, जैसे कि अर्थपद, विभक्त्यन्तपद, गाथापद और समासान्तपद । वृत्तिकार इस स्थान पर अर्थपद ग्रहण करते हैं । " पदाप्रेण पदपरिमाणाष्टादश पदसहस्राणि इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदम् ” जहां अर्थोपलब्धि हो, वहां वही पद अभीष्ट है ।
संख्येयान्यक्षराणि - इस सूत्र में अक्षर भी संख्यात ही हैं ।
गमा- अर्थगमा अर्थात् अर्थ निकालने के अनन्त मार्ग हैं, अभिधान अभिधेय के वश से गम होते हैं, जैसे कि
"चूर्णिकृत् सूरिराह - श्रभिधानाभिधेयवशतो गमा भवन्ति, ते च अनन्ता, अनेन प्रकारेण च ते वेदितव्याः, तद्यथा— सुयं मे श्रासं ते भगवया एत्रमक्खायमिति इदं च सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह तत्रायमर्थः ।”
१. श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! तेन भगवता वर्द्धमानस्वामिना – एवमाख्यातमिति ।
२. अथवा श्रुतं मया श्रायुष्यमदन्ते श्रायुष्मतो – भगवतो वर्द्धमानस्वामिनोऽन्ते समीपे णमिति वाक्यालंकारे तथा च भगवता एत्रमाख्यातम् ।
३. अथवा श्रुतं मया श्रायुष्यमता ।
४. श्रुतं मया भगवत्पादारविन्दयुगलमामृशता ।
५. श्रथवा श्रुतं मया गुरुकुलवासमावसता ।
६. श्रथवा श्रुतं मया हे श्रायुष्यमन् । तेणं ति प्रथमार्थे तृतीया, तद् भगवता एवमाख्यातमिति ।
७. अथवा श्रुतं मया ssयुष्यमन् ! ते णं ति तदा भगवता एवमाख्यातम् ।
८. अथवा श्रुतं मया हे आयुष्यमन् ! 'तेणं' षड्जीवनिकायविषये ।