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________________ नेनेति मंगलम् । अनेक व्यक्ति मंगलाचरण करने पर भी अपने कार्य में सफलता प्राप्त नहीं करते, कतिपय बिना ही मंगलाचरण किए सफल सिद्ध होते हैं, इसमें मुख्य रहस्य क्या है ? इसके मुख्य रहस्य की बात यह है कि उत्तमविधि से मंगलाचरण की न्यूनता और विघ्नों की प्रबलता तथा विघ्नों का सर्वथा अभाव ही हो सकता है। अन्य कोई कारण इसमें दृष्टिगोचर नहीं होता । स्वतः मंगल में मंगलाचरण क्यों ? जब अन्य अन्य ग्रंथ की रचना स्वतन्त्र रूप से करनी होती है, तब तो उसके आदि में मंगलाचरण की आवश्यकता होती है, किन्तु जिनवाणी तो स्वयं मंगल रूप है, फिर इस सूत्र के आदि में मंगलाचरण हेतु अर्हत्स्तुति, वीरस्तुति, संघस्तुति, तीर्थंकरावलि, गणधरावलि जिनशासनस्तुति, और स्थविरावल में सुधर्मा स्वामी से लेकर आचार्य दृष्यगणी तक जितने प्रावचनिक आचार्य हुए, उनके नाम, गोत्र, वंश आदि का परिचय दिया और साथ ही उन्हें वन्दन भी किया । गुणानुवाद और वन्दन ये सब मंगल ही हैं, तथैव आगम भी मंगल है फिर मंगल में मंगल का प्रयोग क्यों ? यदि मंगल में भी मंगल का प्रयोग करते ही जाएं तो यह अनवस्था दोष है ? प्रश्न बहुत सुन्दर एवं मननीय है। इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि आगम स्वयं मंगलरूप है । इस विषय में किसी को कोई सन्देह नहीं है । शुभ उद्देश्य सबके भिन्न-भिन्न होते हैं, उसकी पूर्ति निर्विघ्नता से हो जाए, इसी कारण आदि में मंगल किया जाता है। जिस प्रकार किसी तपस्वी शिष्य ने तपोऽनुष्ठान करना है, तप भी स्वयं मांगलिक है, फिर भी उसे ग्रहण करने से पूर्व गुरु की आज्ञा, सविनय वन्दन, नमस्कार ये सब, उस तप:कर्म की पूर्णाहुति में कारण होने से मंगल रूप हैं । उसी प्रकार शास्त्र भी मंगलरूप है. सम्यक ज्ञान में प्रवृत्तिजनक होने से आनन्दप्रद भी है। अतः अनेक दृष्टिकोणों से शास्त्र स्वतः मंगलकारी है, फिर भी अध्ययन-अध्यापन, रचना एवं संकलन करने से पूर्व अध्येता या प्रणेता का यह परम कर्तव्य हो जाता है कि अपने अभीष्ट शासन देव को तथा अन्य संयम-परायण श्रद्धास्पद बहुश्रुत मुनिवरों को वन्दन और गुणग्राम कररे, क्योंकि उनके गुणानुवाद करने से विघ्नों का समूह स्वयं उपशान्त हो जाता है । उसके अभाव होने पर कार्य में सफलता निश्चित है । यदि प्रगतिबाधक विघ्न पहले से ही शान्त हैं, तो मंगलाचरण आध्यात्मिक दृष्टि से निर्जरा का कारण है तथा पुण्यानुबन्धी पुण्य का भी कारण हो जाता है । इसीलिए नन्दी के आदि में स्तुतिकार ने मंगलाचरण किया है। मंगलाचरण में असाधारण गुणों की स्तुति की जाती है। मंगलाचरण स्व पर प्रकाशक होता है । नन्दी में मंगलाचरण करने से देववाचक जी को तो लाभ हुआ ही है, किन्तु इस मंगलाचरण के पठन और श्रवण से दूसरों को भी लाभ होता है। श्रीसंघ तथा श्रुतधर आचायों के प्रति उन्होंने बढा बढ़ाई है। चतुर्विध संघ ही भगवान है उसकी विनय भक्ति बहुमान करना ही भगवद्भवित है। उसका अपमान करना भगवान् का अपमान है, यह देववाचक जी के अन्तरात्मा की अन्तर्ध्वनि है। इन्सान शुभरूप उद्देश्य की पूर्ति चाहता है, जिसकी पूर्ति उसकी नजरों में कठिन सी प्रतीत हो रही है, उसकी पूर्ति के लिए मंगलाचरण की शरण लेता हैं। कार्य में सफलता होने पर उसमें अहंभाव न जा जाए, उसमें ऐसी भावना प्रायः होती है कि यह सफ लता मेरी शक्तिं " से नहीं, बल्कि मंगलाचरण की शक्ति से हुई है, अन्यथ । अहंभाव आए बिना नहीं रह सकता । अहंभाव, विनय का नाश और विघ्नों का आह्वान करता है।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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