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पूज्य विद्वद्वर्य श्री रत्न मुनि जी महाराज के इस पा पत्र से मेरी भावना बलवती हो उठी और मैंने परम पूज्य श्रुत पुरूष जैन धर्मदिवाकर जैन आगम रत्नाकर श्रमण संघ के प्रथम पटधर आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज का पावन स्मरण करके पुरूषार्थ किया और उस महागुरू की अनुकम्पा से सफलता मिली।
मेरी इस सफलता का सम्बल है परम पूज्य राष्ट्रसन्त, वर्तमान समय के सर्वश्रेष्ठ साधक, उत्तर भारतीय प्रवर्तक गुरूवर्य भण्डारी श्री पदमचन्द जी महाराज एवं पूज्य गुरूदेव उपप्रवर्तक श्री अमर मुनि जी महाराज का मंगलमय आशीष।
इस मंगलमय आगम सेवा में जिन उदारमना दानवीर सद्गृहस्थों ने आर्थिक सहयोग दिया है। यह उनकी महती गुरूभक्ति एवं ज्ञान आराधना का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं | निश्चय ही उन्होने श्रुत एवं शासन सेवा का महान पूण्य उपार्जन किया हैं। जो सभी के लिए अनुकरणीय हैं।
श्री लखमीचन्द जैन ने प्रैस सम्बन्धी कार्य करके जो प्रशंसनीय सेवा की है। उसके लिए वह साधुवाद का पात्र है। ऐसा इस संस्करण में कोई संशोधन या परिवर्तन आदि कुछ नहीं किया गया है। अपितु पूर्व प्रकाशित आगम ग्रन्थ का ही पुनः प्रकाशन हुआ है। मैंने तो बस इस प्रकाशन का प्रबन्ध मात्र किया है। जो मेरे लिए बहुत बड़ा कार्य था। इस कार्य की सम्पूर्ति पर मैं अपन सभी सहयोगियों का धन्यवादी हूँ|
सुव्रत मुनि शास्त्री डबल एम०ए०, पी०एच०डी०
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