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मनःपर्यवज्ञान -
गोयमा !-गौतम सम्मदिहि-पज्जत्तग–सम्यग दृष्टिपर्याप्तक संखेज-वासाउय-संख्यात वर्षायुष्क कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं-कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है, मिच्छदिट्ठि-पज्जत्तग–मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक संखेज-वासाउय-संख्यात वर्षायुष्क कम्मभूमिय-गब्भवतिय-मणुस्साणं-कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को नो-नहीं और नो-न ही सम्मामिच्छदिहि-पज्जत्तग-मिश्रदृष्टि पर्याप्तक संखेज्जवासाउयसंख्यात वर्षायुष्क कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं-कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है । . भावार्थ-यदि पर्याप्त संख्यात वर्ष आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है तो क्या सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्ष आयुवाले कर्मभूमिज-गर्भज मनुष्यों को, मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को अथवा मिश्रदृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्ष आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यातवर्ष आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को नहीं होता।
टीका- इस सूत्र में श्रमण भगवान महावीर के समक्ष गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि जो मनुष्य ‘पर्याप्त, कर्मभूमिज, गर्भज, तथा संख्यात वर्ष की आयुवाले हैं, उनमें तीन दृष्टियां पाई जाती हैं-सम्यकु, मिथ्या और मिश्र, तो भगवन् ! मनःपर्यवज्ञान सम्यग्दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं, मिथ्यादृष्टि या मिश्रदृष्टि भी प्राप्त करने में समर्थ हैं ? भगवान ने उत्तर दिया है कि उक्त विशेषणों से सम्पन्न सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही मनःपर्यवज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मिथ्यादृष्टि एवं मिश्रदृष्टि मनःपर्यवज्ञान प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ हैं।
तीन दृष्टियाँ जिसकी दृष्टि-विचारसरणी, आत्माभिमुख, सत्याभिमुख, जिनप्रणीततत्त्व के ही अभिमुख हो, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं अर्थात् जिसको तत्वों पर सम्यक् श्रद्धान हो, वही सम्यग्दृष्टि होता है। जिसकी दृष्टि उपर्युक्त लक्षणों से विपरीत हो तथा विपरीत श्रद्धा हो, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। जिसकी दृषि किसी पदार्थ के निर्णय करने में समर्थ न हो और न उसका निषेध ही करने में समर्थ हो, न सत्य को ग्रहण करता और न असत्य को छोड़ता ही है। जिसके लिए सत्य और असत्य दोनों समान ही हैं। जैसे मूढ़ व्यक्ति सोने यौर पीतल को परखने की शक्ति न होने से, दोनों को समान दृष्टि से देखता है, वैसे ही अज्ञानता से जो मोक्ष के अमोघ उपाय हैं, और जो बन्ध के हेतु हैं, दोनों को तुल्य ही समझता है । तथा जैसे कोई नालीकेर द्वीपवासी व्यक्ति, ऐसे देश में पहुंच गया जहाँ पर लोग प्रायः वासमती चावल खाते हैं । वह व्यक्ति भूख से पीड़ित हो रहा है। किसी ने उसके सम्मुख चावल आदि उत्तम पदार्थ थाली में परोस कर दिए। वह अज्ञ व्यक्ति भूख के कारण उदरपूर्ति अवश्य कर रहा है, परन्तु न तो उसकी उन पदार्थों में रुचि है और न उन पदार्थों की निन्दा ही करता है, क्योंकि उसने चावल आदि आहार पहले न देखा, न सुना और न खाया ही है। यही उदाहरण मिश्रदृष्टि पर घटित होता है मिश्रदृष्टि मनुष्य की न जीवादि पदार्थों पर श्रद्धा ही होती है और न उन की निन्दा ही करता है। दोनों को समान समझता है । अतः भगवान ने उत्तर देते हुए कहा-गौतम ! मनःपर्यवज्ञान न मिथ्यादृष्टि प्राप्त कर सकता है और न मिश्रदृष्टि, केवल सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही प्राप्त कर सकते हैं।