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मनःपर्यवज्ञान
१०५ संख्यातवर्ष आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है, अप्पज्जत्तग–अपर्याप्त संखेज्जवासाउयसंख्यातवर्ष आयुष्यक कम्मभूमिय-कर्मभूमिज गब्भवक्कंतिय-गर्भज मणुस्साणं- मनुष्यों को नो-नहीं उत्पन्न होता है।
भावार्थ-यदि संख्यातवर्ष आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है तो क्या पर्याप्त संख्यातवर्ष आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को या असंख्यात वर्ष आयुष्यवाले कर्म भूमिज गर्भज मनुष्यों को ? गौतम ! पर्याप्त संख्यात वर्ष आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है, अपर्याप्त को नहीं।
____टीका-इस सूत्र में गौतम स्वामी ने मनःपर्यवज्ञान के विषय में आगे प्रश्न किया है कि भगवन् ! संख्यातवर्ष की आयुवाले, कर्मभूमिज, गर्भेजक मनुष्य दो प्रकार के होते हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त, इनमें से किन को उफ्त ज्ञान हो सकता है ? इसका उत्तर भगवान ने दिया कि पर्याप्त मनुष्यों को हो सकता है, अपर्याप्त को नहीं।
पर्याप्त और अपर्याप्त जिस कर्म प्रकृति के उदय से मनुष्य स्व-योग्य पर्याप्ति को पूर्ण करे, वह पर्याप्त और इससे विपरीत जिसके उदय से स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण न कर सके, उसे अपर्याप्त कहते हैं । पर्याप्तियां ६ होती हैं, जैसे कि आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मन: पर्याप्ति । इन का विशेष विवरण निम्न लिखित है
(१) आहार-पर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव आहार योग्य बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके खल और रस रूप में बदलता है, वह आहार पर्याप्ति है।
(२) शरीर-पर्याप्ति-जिस शक्ति द्वारा रस-रूप में परिणत आहार को असृग, मांस, मेधा, अस्थि, मज्जा, शुक्र-शोणित आदि धातुओं में परिणत करता है, उसे शरीर-पर्याप्ति कहते हैं ।
(३) इन्द्रिय-पर्याप्ति—पांच इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके अनाभोग निवर्तित योगशक्ति द्वारा उन्हें इन्द्रियपने में परिणत करने की शक्ति को इन्द्रिय-पर्याप्ति कहते हैं। ... (१) श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति-उच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को जिस शक्ति के द्वारा ग्रहण करता और छोड़ता है, उसे श्वासोच्छास पर्याप्ति कहते हैं।
(५) भाषा-पर्याप्ति-जिस शक्ति के द्वारा आत्मा भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर भाषापने परिणत करता है, उसे भाषा-पर्याप्ति कहते हैं।
(६) मनःपर्याप्ति—जिस शक्ति के द्वारा आत्मा मनोवर्गणा-पुद्गलों को ग्रहणकर, उन्हें मन के रूप में परिणत करता है, उसे मनःपर्याप्ति कहते हैं। मन पुद्गलों का अवलंबन लेकर ही जीव संकल्प-विकल्प करता है।
आहार पर्याप्ति एक समय में ही हो जाती है, जैसे कि कहा है-"प्रथम श्राहारपर्याप्तिस्ततः शरीरपर्याप्तिस्तत इन्द्रियपर्याप्तिरित्यादि,। आहार पर्याप्तश्च प्रथमसमय एव निष्पद्यते, शेषास्तु प्रत्येकमन्तमहतेन" जिस जीव में जितनी पर्याप्तियां पाई जाती हैं, वे सब हों, उसे पर्याप्त कहते हैं । एकेन्द्रिय में पहली