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नन्दीसूत्रम्
भावार्थ-अनुयोग की विपुल धारणा रखने वालों में तथा सर्वदा क्षमा और दया आदि गुणों की प्ररूपणा करने में इन्द्र के लिये भी दुर्लभ, ऐसे श्री गोविन्द आचार्य को नमस्कार हो।
और तत्पश्चात् तप-संयम की आराधना, पालना में प्राणान्त कष्ट या उपसर्ग होने पर भी जो खेद नहीं मानते थे । पण्डित जनों से सम्मानित, संयम विधि-उत्सर्ग और अपवाद के विशेषज्ञ इत्यादि गुणो. पेत आचार्य भूतदिन्न को वन्दन करता हूं।
टीका--उक्त दो गाथाओंमें जितेन्द्रिय, निःशल्यव्रती, श्रीसंघ के शास्ता एवं सन्मार्ग प्रदर्शक आचार्य प्रवर
(२६-३०) श्री गोविन्द और भूतदिन्न, इन दोनों आचार्यों की गुणनिष्पन्न विशेषणों से स्तुति . करते हुए वन्दना की गई है, जैसे-सर्व देवों में इन्द्र प्रधान होता है, वैसे ही तत्कालीन अनुयोगधर आचार्यों में गोविन्दजी भी इन्द्र के समान प्रमुख थे। गोपेन्द्र शब्द का प्राकृत में "गोविन्द" बनता है। . .
णिच्च खंति-दयाणं-इस पद से, उनकी नित्य क्षमाप्रधान दया सूचित की गई है, क्योंकि अहिंसा की आराधना क्षमाशील व्यक्ति ही कर सकता है । दयालू ही क्षमाशील हो सकता है। अतः क्षान्ति और दया, ये दोनों पद परस्पर अन्योऽन्य आश्रयी हैं, एक के बिना दूसरे का भी अभाव है। समग्र आगमवेत्ता होने से, इनकी व्याख्या एवं व्याख्यानशैली अद्वितीय थी। ___इनके पश्चात् आचार्य भूतदिन्न हुए हैं। इनमें यह विशेषता थी, कि तप-संयम की आराधना, साधना में भीषण कष्ट होने पर भी खेद नहीं मानते थे। इसके अतिरिक्त वे विद्वज्जनों से सम्मानित एवं सेवित थे और साथ ही संयमविधि के विशेषज्ञ थे।
उपर्यक्त गाथाओं में निम्नलिखित पाठान्तरभेद देखे जाते हैं :(१) 'धारणिदाणं' के स्थान पर 'धारिणंदाणं'। (२) 'दयाणं' के स्थान पर 'जुयाणं' । (३) 'दुल्लभिदाणं' के स्थान पर 'दुल्लभिदाणि' । (४) सम्माणं के स्थान पर सम्माण्णं । (५) 'वंदामो' के स्थान पर 'वंदामि' । इन्द्र शब्द का पर-निपात प्राकृत के कारण जानना चाहिए।
मूलम्-वर-कणग-तविय चंपग-विमउल-वर-कमल-गब्भसरिवन्ने ।
भविय-जण-हियय-दइए, दयागुण-विसारए धीरे ॥४३।। अड्ढभरहप्पहाणे, बहुविह सज्झाय-सुमुणिय-पहाणे । अणुयोगिए-वरवसभे, नाइलकुल - वंस नंदिकरे ॥४४॥ भूयहियप्पगब्भे, वंदेऽहं भूयदिन्नमायरिए । भव-भय-वुच्छेयकरे, सीसे नागज्जुणरिसीणं ॥४५॥