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________________ प्रकाशकीय भगवान महावीर से एक बार पूछा गया, भगवन ! एकान्त शाश्वत सुख कैसे मिलता है ? तब प्रभु महावीर ने कहा था। नाणस्स सव्वस्स पगासणाए अन्नाण मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगन्त सोक्खं समुबेइ मोक्खं ।। उत्तराध्ययन ३२/२ अर्थात सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से एकान्त और शाश्वत सुख प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्त होता है -अज्ञान और मोह के छूटने पर और अज्ञान एवं मोह कैसे छूटते हैं, राग तथा द्वेष के समाप्त होने पर। तब एकान्त शाश्वत सुख प्राप्त होता है। फिर पूछा गया कि ज्ञान पाने का क्या उपाय है- मार्ग क्या हैं? तब वीतराग देव भगवान महावीर ने उपदेशित किया तस्सेस मग्गो गुरुविद्ध सेवा, विवज्जणा बाल जणस्स दूरा। सज्झाय एगन्त निसेवणाय सुत्तत्थसचिन्तणया धिई च ।। उस सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने का यह मार्ग है। गुरूजनों की सेवा करना, अज्ञानियों की संगति का त्याग करना और एकान्त शान्त स्थान पर स्वाध्याय करना, तथा सूत्र और उसके अर्थ का धैर्य पूर्वक चिन्तन मनन करना। ऐसा करने से ही ये आत्मा सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परां में ३२ आगम माने गये हैं जिन में ज्ञान दर्शन चारित्र और तप आदि का विस्तृत वर्णन किया गया हैं। फिर भी नन्दीसूत्र समस्त श्रुत साहित्य का एक केन्द्र बिन्दु है। यह पराविद्या का असाधारण कारण हैं। आत्म ज्ञान हो जाना ही पराविद्या का अन्तिम फल है, क्योंकि आत्मा स्वरूप की उपलब्धि इसी विद्या से होती है। मानव को आत्मलक्ष्यी बनाने वाली यही विद्या है। इसी विद्या से कर्मों एवं दुःखों का तथा अज्ञान का सर्वथा क्षय होता है। कहा भी हैं- “सा विद्या या विमुक्तये" इसी विद्या के सहयोग से शुक्ल ध्यान और यथाख्यात चारित्र की आराधना हो सकती है। सदैव वन्दनीय प्रातः स्मरणीय शान्त मुद्रा बाल ब्रह्मचारी जैन धर्म दिवाकर, जैनागम रत्नाकर, परम उपकारी महान सन्त, श्रमण संघ के प्रथम पट्टधर, वचन सिद्ध महापुरूष, तपस्त्याग की साक्षात मूर्ति उच्च चारित्री, दीर्घद्रष्टा, बहुश्रुत आचार्य सम्राट परम पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने श्री नन्दीसूत्र पर विस्तृत हिन्दी व्याख्या लिखकर न केवल स्थानक वासी समाज को अपितु समस्त जैन समाज को उपकृत किया हैं। जैन समाज में इस सूत्र के नित्य स्वाध्याय की परम्परा प्रचलित है। मूल के साथ व्याख्या भी उपलब्ध हो तो सोने में सुगन्ध वाली बात हो जाती हैं। वैसे व्याख्याएं तो सभी आगमों पर अनेक विद्वानों ने लिखी हैं परन्तु आचार्य देव पूज्यवर श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा लिखित व्याख्या विस्तृत होने से अधिक उपयोगी हैं। इसलिए उनके आगमों की समाज में अधिक मांग हैं। पूर्व प्राकशित नन्दीसूत्र का प्रथम संस्करण 'समाप्त हो रहा था। पाठकों की मांग निरंतर बढ़ रही थी। इसीलिए मांग को ध्यान में रखते हुए परमपूज्य
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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