SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2. कोई विदेश गया है, वह वहाँ जीवित है या मर गया ? 3. कोई परीक्षा करने की दृष्टि से पूछे कि “मैं अभी सुखी हूँ या दुःखी ?" इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देना वर्तमान निमित्त कथन हैं इसी प्रकार भविष्यकाल के हानि-लाभ, सुख-दुःख, जन्म-मरण सम्बन्धी निमित्त के प्रश्न व उनके उत्तर भी समझ लेने चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण में वर्तमान और भविष्य के निमित्त कथन का गुरुचौमासिक प्रायश्चित्त कहा गया है। भूतकाल के निमित्तकथन का लघुचौमासिक प्रायश्चित्त तेरहवें उद्देशक में है। निमित्तकथन का निषेध आगमों में भिन्न-भिन्न प्रकार से हुआ है। कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं 1. जे लक्खणं च सुविणं च, अंगविज्जं च जे पउंजंति । ते समणा वुच्चति, एवं आरिएहिं अक्खायं ॥ ण हु - उत्तरा. अ. 8, गा. 3 अर्थ- जो साधक लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र एवं अंगविद्या का प्रयोग करते हैं उन्हें सच्चे अर्थों में श्रमण नहीं कहा जाता, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है । 2. ★ जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे, णिमित्त कोउहल संपगाढे। कुहेड विज्जासवदारजीवी, न गच्छइ सरणं तम्मि काले ॥ - उत्तरा. अ. 20. गा. 45 अर्थ- जो लक्षणशास्त्र और स्वप्नशास्त्र का प्रयोग करता है, जो निमित्तशास्त्र और कौतुक कार्य में लगा रहता है, मिथ्या आश्चर्य उत्पन्न करने वाली आम्रवयुक्त विद्याओं से आजीविका करता है, वह मरण के समय किसी की शरण नहीं पा सकता। 3. सयं गेहं परिच्चज्ज, परगेहंसि वावरे । निमित्तेण य ववहरइ, पावसमणे त्ति वुच्चइ | - उत्तरा. अ. 17, गा. 18 अर्थ–जो अपना घर छोड़कर दूसरों के घर में जाकर उनका कार्य करता है और निमित्तशास्त्र से शुभाशुभ बताकर जीवन-व्यवहार चलाता है, वह पापश्रमण कहलाता है। 4. छिन्नं सरं भोममन्तलिक्खं, सुविणं लक्खण- दण्ड- वत्थु - विज्जं । अंग - वियारं सरस्स विजयं, जे विज्जाहिं न जीवई स भिक्खू ॥ - उत्तरा. अ. 15, गा. 7 अर्थ - जो छेदन, स्वर (उच्चारण), भौम, अंतरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, दंड, वास्तुविद्या, अंगस्फुरण और स्वरविज्ञान आदि विद्याओं के द्वारा आजीविका नहीं करता है, वह भिक्षु है । 5. क्खत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंत-भेसजं । गहिणोन आइक्खे, भूयाहिगरणं पयं ॥ - दशवै. अ. 8, गा. 50 अर्थ - नक्षत्र, स्वप्न, वशीकरण योग, निमित्त, मंत्र और भेषज- ये जीवों की हिंसा के स्थान हैं, इसलिए गृहस्थों को इनके फलाफल न बताए । निमित्तकथन से जिनाज्ञा का उल्लंघन होता है। साधक संयमसाधना से चलित हो जाता है। साव प्रवृत्तियों का निमित्त बनता है । दसवाँ उद्देशक (175) Tenth Lesson
SR No.002486
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Sthanakavsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2015
Total Pages452
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy