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स्त्रीपरिषद् में रात्रि - कथा करने का प्रायश्चित्त
THE ATONEMENT OF DELIVERING DISCOURSES AT NIGHT IN WOMAN'S ASSEMBLY
10. जे भिक्खू राओ वा, 1 ,वियाले वा, इत्थिमज्झगए, इत्थिसंसत्ते इत्थि-परिवुडे अपरिमाणाए कहं कहेइ, कतं वा साइज्जइ ।
10. जो भिक्षु रात्रि में या संध्याकाल में स्त्री परिषद् में, स्त्रीयुक्त परिषद् में, स्त्रियों से घिरा हुआ अपरिमित कथा कहता है अथवा कहने वाले का समर्थन करता है । (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।)
10. The ascetic who delivers long discourse at the night or in the evening in the woman's congregation surrounded by the woman or supports the ones who tells so, a Guruchaumasi expiation comes to him.
निर्ग्रथी से सम्पर्क करने का प्रायश्चित्त
THE ATONEMENT OF ESTABLISHING CONTACTS WITH "NUN"
11. जे भिक्खू सगणिच्चियाए वा, परगणिच्चियाए वा, णिग्गंथीए सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरओ गच्छमाणे, पिट्ठओ रीयमाणे, ओहयमणसंकप्पे चिंता-सोयसागरसंपविट्ठे, करयलपल्हत्थमुहे, अट्टज्झाणोवगए, विहारं वा करेइ, जाव असमणपाउग्गं कहं कहेइ, कहेंतं वा साइज्जइ ।
11. जो भिक्षु स्वगण की या अन्य गण की साध्वी के साथ आगे या पीछे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए संकल्प-विकल्प करता है, चिंतातुर रहता है, शोक - सागर में डूबा हुआ रहता है, हथेली पर मुँह रखकर आर्तध्यान करता रहता है यावत् साधु के न कहने योग्य कामकथा कहता है अथवा क वाले का समर्थन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।)
11. The ascetic who desires, worries and mourns while travelling from one village to another village ahead or following the nun of his own group or other group or sits distressfully keeping his face on his palm and tells the sexual stories which are not worthy of an ascetic or supports the ones who tells some Guru-chaumasi expiation comes to him.
विवेचन - जिस तरह साधु को धर्मकथा या गोचरी के सिवाय स्त्री के साथ सम्पर्क या परिचय निषिद्ध है उसी तरह साध्वी के साथ भी साधु को स्वाध्याय, सूत्रार्थ वाचन के सिवाय सम्पर्क करना निषिद्ध समझना चाहिए।
साधारणतया साधु साध्वी को एक-दूसरे के स्थान (उपाश्रय) में बैठना या खड़े रहना आदि भी निषिद्ध है (बृहत्कल्प उद्देशा 3, सू. 1-2)।
प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वी के साथ विहार का और अतिसम्पर्क का निर्देश करके प्रायश्चित्त कहा गया है।
अपवादिक स्थिति में साधु-साध्वी एक-दूसरे की अनेक प्रकार से सेवा कर सकते हैं और परस्पर आलोचना प्रायश्चित्त भी कर सकते हैं किन्तु उत्सर्ग रूप से वे परस्पर सेवा एवं आलोचनादि भी नहीं कर सकते ( व्यवहार सूत्र उद्देश 5 ) ।
आठवाँ उद्देशक
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Eighth Lesson