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________________ इन छेदसूत्रों को मुख्यतया दो भागों में विभक्त किया गया है पहला अंगान्तर्गत और दूसरा अंग बाह्य । निशीथ को अंगान्तर्गत माना गया है और शेष छेद सूत्रों को अंग बाह्य । यह निशीथ सूत्र की महत्ता को सप्रमाण सूचित करता है। छेदसूत्र का स्वतंत्र वर्ग बना और निशीथ की गणना उसमें की जाने लगी, तब भी वह स्वयं अंगान्तर्गत ही माना जाता रहा। निशीथ सूत्र सबसे गम्भीर और रहस्यमय सूत्र है । निशीथ का अर्थ है अप्रकाश्य यानि अंधकार । निशीथ एक गोपनीय अर्थात् अप्रकाश्य ग्रंथ है। इसे हर कोई व्यक्ति पढ़ नहीं सकता क्योंकि इसमें साधु-साध्वी के संयम जीवन से सम्बन्धित उत्सर्ग विधि, अपवाद विधि एवं आचरणीय प्रायश्चित्तों का विवेचन है जो सूत्र रात्रि में, एकान्त में अथवा विशेष योग्य पाठक को, योग्य क्षेत्रकाल में पढ़ाया जाता है, वह निशीथ है। इसका अध्ययन केवल परिणामिक-परिपक्व बुद्धि वाले पाठक ही कर सकते हैं। अपरिपक्व एवं कुतर्कपूर्ण बुद्धि वाले पाठक निशीथ सूत्र पढ़ने के अनधिकारी माने गए हैं। अतः जो पाठक आजीवन रहस्य को धारण कर सकता है, वही निशीथ सूत्र पढ़ने का अधिकारी है। निशीथ का अध्ययन गांभीर्य आदि गुणों से युक्त तीन वर्ष का दीक्षित साधु और प्रौढ़ता की दृष्टि से सोलह वर्ष से ज्यादा की वय वाला साधु ही कर सकता है। निशीथ का अध्ययन किए बिना कोई भी श्रमण न तो अपने सम्बन्धियों के यहाँ भिक्षा के लिए जा सकता है और न ही वह उपाध्याय पद को प्राप्त कर सकता है। श्रमण मंडली का प्रमुख बनने हेतु, स्वतन्त्र विहार करने हेतु और अन्य किसी श्रमण या श्रमणी को प्रायश्चित्त देने हेतु निशीथ सूत्र का ज्ञान होना परम आवश्यक है। इस कारण व्यवहार सूत्र में निशीथ को एक मानदण्ड के रूप में प्रस्तुत किया गया है। निशीथ का निर्यूहण प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व से हुआ है। उस पूर्व में बीस वस्तु अर्थात् बीस अर्थाधिकार है। उनमें तीसरे वस्तु "आयार" के बीस प्राभृतच्छेद यानि उपविभाग हैं। इनमें से बीसवें प्राभृतच्छेद से निशीथ सूत्र का निर्यूहण हुआ है। निशीथ आचारांग की पाँचवी चूला है। इसे एक स्वतंत्र अध्ययन भी कहते हैं। इसलिए इसका अपर नाम निशीथाध्ययन भी है। इसमें 20 उद्देशक हैं। पूर्व के 19 उद्देशकों में प्रायश्चित्तों का विधान है और बीसवें उद्देशक में प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया प्रतिपादित है । पहले उद्देशक में मासिक अनुद्घातिक ( गुरु मासिक), दूसरे से लेकर पाँचवें तक मासिक उद्घातिक (लघुमासिक), छठे से लेकर ग्यारहवें तक के उद्देशक चातुर्मासिक अनुद्घातिक (गुरु चातुर्मासिक) तथा बारहवें से लेकर बीसवें तक के उद्देशक में चातुर्मासिक उद्घातिक (लघु चातुर्मासिक) प्रायश्चित्तों का उल्लेख है। चूँकि निशीथ सूत्र की विषय वस्तु में प्रायः गम्भीरता, विभिन्नता एवं विविधता देखने को मिलती है | अतः प्रस्तुत छेदसूत्र के भावानुवाद के साथ जहाँ-जहाँ आवश्यकता हुई, वहाँ-वहाँ हमने सरल, सरस एवं संक्षिप्त रूप में विवेचन प्रस्तुत किया है ताकि सुज्ञ पाठकों को कोई भी विषय समझने में परेशानी न हो। इतना ही नहीं स्थान-स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विषयों को समझने के लिए भावपूर्ण सुरम्य रंगीन चित्रों का चित्रांकन भी किया गया है ताकि ये चित्र पाठकों के मानस पटल पर उभर जायें और वे वीतराग परमात्मा द्वारा आगम में फरमाई गई बातों का मर्म आसानी से ग्रहण कर सकें । (8)
SR No.002486
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Sthanakavsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2015
Total Pages452
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size20 MB
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