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हमने नमस्कार निश्चित् रुप से रागी-द्वेषियों को ही किये होंगे । संसार के त्यागीजनों को नहीं, बल्कि संसार के रागी और संसारी जनों को ही किये होंगे - - इसीलिये उन नमस्कारों का हमें लाभ नहीं मिलेगा, बल्कि वे हमारे संसार-वृद्धि में सहायक ही बने, क्यों कि संसारी-रागी-द्वेषीजनों को किये गए नमस्कार संसार की वृद्धि कर्ता ही होते हैं इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं । रागी - द्वेषी देव देवियों की प्राप्ति हुई होगी । बावे और फकीर ही मिले होंगे, मिथ्यात्वी देव-देविओं की मान्यता में ही मैं निमग्न रहा होउँगा । इस प्रकार ऐसों को किये हुए नमस्कार लाभदायक सिद्ध नहीं हुए। इससे मेरे में सम्यक श्रद्धा तो बढ़ न पाई, परन्तु मिथ्यात्व का ही पोषण अवश्य हुआ । मिथ्यात्व में ही अभिवृद्धि हुई । बात भी सही है । उनके पास यही संभव है । अन्य अपेक्षा भी क्या रखी जा सकती है।
हाँ ! ऐसे भी अनेक भव हुए होंगे जिन में अरिहंतादि पंच परमेष्ठि भी प्राप्त हुए होंगे । इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता, परन्तु संभव है कि प्राप्त अरिहंतादि पंच परमेष्ठियों को नमस्कार ही न किया हो अथवा मिथ्याभिमान के नशे के प्रबल प्रभाव के कारण नमस्कार करने के भाव ही जागृत न हुए हो । पंच परमेष्ठि विस्मृत हो गए हों अथवा जान-बूझकर भुलाने का प्रयत्न किया होगा । मिथ्यात्व के नशे में धुत होकर संभवतः यह भी कहता रहा होउँगा कि नहीं - नहीं मैं तो मानता ही नहीं हुं । मेरा तो ऐसे पंच परमेष्ठि अरिहंतादि में विश्वास ही नहीं है । मुझे तो इन में भी शंका है - आदि विचारों से प्राप्त पंच परमेष्ठि भी नमस्कार के अभाव में निरर्थक गए ।
कालांतर में भवितव्यता के योग से कदाचित् ऐसे भी जन्म हुए होंगे जिन में नमस्कार भाव जागृत हुआ हो और दूसरी ओर अरिहंतादि पंच परमेष्ठि भगवंत की भी प्राप्ति हुई हो; फिर भी संभव है कि भावों में तीव्रता न आई हो । मानसिक अथवा कायिक पापाचार में ऐसे आकण्ठ निमग्न हो गए हों प्रमाद वश प्रभु को भूल चुके हों । पंच परमेष्ठि दृष्टिपटल से विस्मृत हो गए हो । हम अभिमान में इतने आगे बढ़ गए कि मिथ्यात्व ने सीमा ही लाँघ दी, भाषा विकृत बन गई, और हम बोल उठे कि अरिहंतादि कुछ भी हैं ही नही, सिद्ध हैं ही नहीं, मोक्ष जैसी कोई वस्तु ही नहीं है - इन सभी को हमने मानसिक मिथ्या कल्पना ही माना और देखते ही देखते छोटी सी जींदगी व्यर्थ समाप्त हो गई । दुनिया भर का निरर्थक पाप सिर पर लेकर चलते बने ।