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को वीर्यगुण युक्त बनाना चाहिये ।
“नमो" भाव की घनता
उपयोग भी आत्मा का गुण है । नमस्कार उपयोग प्रधान होना आवश्यक है । क्रियारत नमस्कार में भाव का उपयोग रहना चाहिये । उपयोग ज्ञानदर्शनात्मक चेतना स्वरुप है अतः उपयोग प्रधान क्रियायुक्त नमस्कार में चेतना आती है । ज्ञानात्मकता - दर्शनात्मकता की उपस्थिति जानी जाती है ऐसा अयोग भाव आत्मा को नमस्कार के बाहर नहीं जाने देगा अतः उपयोग युक्त नमस्कार प्रवृत्तिरूप नहीं, बल्कि वृत्ति रुप ही रहेगा । क्रियारुप की अपेक्षा भी गुणरुपिता उसमें अधिक रहेगी अर्थात् आत्मा नमस्कार की क्रिया की अपेक्षा भी नम्रता का भाव अधिक रखेगी - अधिक नम्र बनेगी । मनोयोग से नम्रता प्रकट हंगी । नमस्कार जब क्रिया में से गुण में स्थिर होगा जिस नमस्कार में से नम्रता और नम्रता में से भी नमोभाव तक आत्मा को पहुँचाएगा। यह प्रक्रिया विभाव में से स्वभाव में जाने की है । सामान्य औषधि का घनसत्व बनाने की यह एक प्रक्रिया है । नमस्कार सामान्य औषधि स्वरुप में रहेगा, तो नम्रता उसका अर्क रहेगा । उस में से भी आगे बढ़ने पर 'नमो भाव' में अर्क का भी घनीकरण होगा अर्थात् घनसत्त्व नमो भाव के प्रकट होगा । सभी जीव 'नमो' भाव वाले नहीं होते हैं । अल्प संख्यक जीव ही नमो भाव वाले होते हैं, जब कि बहु संख्यक जीव नमस्कार
प्रवृत्ति वाले होते हैं, क्यों कि नमस्कार की प्रवृत्ति बाह्य है, कायिक है, व्यवहारिक है, सामान्य है, जब कि नमो भाव आभ्यंतर है, आत्मिक है, नैश्चनिक है, विशेषगुण प्रधान हैं ! नमस्कार क्रिया-प्रधान रहेगा तब तक विभावदशा में जाने की आशंका रहेगी, जब कि नम्रता के द्वार पर यदि वही नमस्कार नमोभव में परिणत हो जाएगा, तो वही नमस्कार स्वभाव दशा में लीन रहेगा । नमस्कार की क्रिया निरर्थक नहीं है । एक बार नहीं, बल्कि हजारों-लाखों बार के नमस्कर क्रियाशीलता में उपयोगी बनेंगें, तब उनका अर्क उन में से खिंचकर आने के पश्चात् उन में से घनसत्त्व रूप में नमोभाव ही प्रकट होगा ।
बाहुबलीने नमस्कार से ही नहीं बल्कि नमोभाव से केवलज्ञान की प्राप्ति की थी । नमस्कार की क्रिया कायिक क्रिया रहेगी, अतः नमस्कार कायिक कायप्रधान कहलागा, जब कि नम्रता मानसिक गुण कहलाएगी । उसका केन्द्रस्थान मन होगा
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