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है ही, फिर स्वर्गवास का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है? मुनि महात्मा ने अपने ज्ञानयोग से उपयोग द्वारा वस्तुस्थिति जानकर स्पष्ट करते हुए कहा - भाग्यशाली ! इस प्रश्न का उत्तर यदि तुम्हें दूंगा तो सुनकर तुम्हें बहुत दुःख होगा, बुरा लगेगा। अतः यह पूछने का आग्रह मत रखो ।
देव-नहीं भगवन! बुरा किया होगा तो तदनुसार ही गति होगी, इस में बुरा लगेगा तो भी क्या करना है ? आप तो फरमा दें ।
___मुनि - ठीक है तो सुनो। यह तुम्हारा भव अब लगभग समाप्त होने आया है। तुम यह देव भव पूर्ण करके मृत्यूपरान्त तिर्यंच गति में जाओगे। अधिकांश देवता तिर्यंचगति में ही जाते हैं, क्योंकि देवता नरक में तो जाते नहीं, और तुरन्त पुनः
देव भी बनते नहीं हैं, इस नियम के अनुसार दो गतिओं के द्वार तो तुम्हारे लिये बंद ही हो चुके हैं, अतः अब मनुष्य और तिर्यंच की मात्र दो ही गतियो के द्वार खुले हैं। मनुष्य की गति में तो सीमित-मर्यादित ही संख्या है। मात्र निश्चित संख्या में ही जीव मनुष्य गति में जाते हैं । उन में भी कोई विरले ही प्रबल उत्कृष्ट पुण्यशाली जीव ही मनुष्य गति में जाते हैं, शेष ९९% देव तो मरकर तिर्यंच गति में ही जाते हैं । इसके अतिरिक्त मनुष्य गति में तो चारों ही गतिओ में से जीव आते हैं । तुम्हारे अशुभ कर्मोपार्जन के कारण तुम तिर्यंच गति में जाओगे और उसमें भी एक बंदर के रुप में विंध्यगिरी पर्वतमाला की श्रृंखला में तुं उत्पन्न होगा - ऐसा मेरे ज्ञानयोग में दिखता है। संभव है तुम्हें भी उपयोग द्वारा स्पष्ट दिखाई देगा। देवता यह सुनकर सखेद विस्मित हो गया। . देवता - अरे भगवन! गजब हो गया। ऐसी तो मैंने कल्पना भी न की थी, अब मेरा क्या होगा? अरे रे! बन्दर के भव में मैं क्या करूँगा ? अरे...रे !
___मुनि - भाग्यशाली! कुछ करना हो तो तिर्यंच गति में भी बहुत कुछ हो सकता है, घबराने की क्या बात है ?
देवता - हे परम करूणानिधान! आप ही उपाय बताओ, जिससे इस वानर भव से बचा जा सके।
मुनि - देखो भाई! सर्वथा इस गति में से ही बचना तो कैसे संभव है? तुम ही ने उपार्जित कि है, तुम्हारे अशुभ कर्मों के कारण ही यह उपार्जन हुआ है, अत तुम्हे जाना तो पडेगा ही, तुम्हें वहाँ जन्म तो लेना ही पडेगा। ऊपर से कोई ब्रह्मा विष्णु आदि तुम्हारी गति बदलने के लिये आनेवाले नहीं है। जीव ने जो भी पाप
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