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स्वर्गवास हुआ है - आदि - तो हमारे में भी बुद्धि तो है न? धर्म सुना है तो हमें भी थोडा तो पता चलता ही है कि आजीवन ऐसे इतने पाप करनेवाले इसके पिताश्री का स्वर्गगमन कहाँ से हुआ? यकायक सीधे ही स्वर्ग में कैसे चले गए? यह सुनकर हमें तो आश्चर्य हुआ है अतः हमने बहुत बुरा होने की बात लिखी है। इस बात से तो हमें लगता है कि वास्तव में यह तो बहुत ही बुरा हुआ है। नरक में जाने चाहिये थे - वे स्वर्ग में कैसे चले गए? अतः बुरा हुआ है - ऐसा लगता है और इसीलिये भूल में कदाचित नरक के बदले स्वर्ग में चले गए होंगे - यह जानकर बहुत दुःख होता है।
अब सगे-स्नेहीजनों के उत्तर के पीछे रहा हुआ रहस्य जानकर क्या आपको आश्चर्य नहीं होगा? यह भेद और रहस्य इस उत्तर में छिपा हुआ है? अर्थात् क्या पिता की मृत्यु के पश्चात उसकी गति पुत्र के हाथ में है? बेटा स्वर्ग में भेजे तो क्या पिता स्वर्ग में ही जाता है या बेटा जहाँ भेजे वहाँ पिता जाता है? पिता की गति की लगाम या सनद क्या पुत्र के हाथ में है? नहीं, नहीं, यह तो मात्र लोकाचार है। औपचारिकता है। स्वर्गवास शब्द लिखने में संसार के रिवाज के सिवाय कुछ भी नहीं है, यह तो मात्र संसार का व्यवहार है। अच्छा शब्दप्रयोग है, अतः पुत्र पिता के लिये अच्छा शब्द प्रयोग कर लेता है। नरकवास या तिर्यंचवासादि शब्द लिखना जरा अशोभनीय लगता है, अतः स्वर्गवास शब्द का प्रयोग लोकव्यवहार में प्रचलित हो गया है। बाकी मरनेवाले की गति किसी पुत्र या पौत्र के हाथ में नही है। जीवने स्वयं जैसे शुभ-अशुभ, पुण्य या पाप कर्म किये होंगे उनके आधार पर ही उसकी गति होना निश्चित है। अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार ही वह वैसी गति में जाएगा। यथा मतिस्तथा गतिः - का नियम यहाँ लागू होता है। जिस जीव की जैसी मति होगी वैसी ही उसकी गति होगी। जीवन में पाप या पुण्य की जैसी भी प्रवृत्ती की होगी, वैसी ही उसकी गति होगी। जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है तदनुसार गति और आयुष्य के लक्षणों को समझ लें। उनके आधार पर जिस जीव की प्रवृत्ति जिस गति के अनुरुप होगी, वैसी ही गति उस जीव कि होगी। कर्म सिद्धान्त के अनुसार ही जगत चलता है ।
नक्कार के आधार पर सदगति -
सद्गति और दुर्गति का चिन्तन हम पूर्व में कर चुके हैं । नवकार महामंत्र
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