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यह लोकक्षेत्र तीन विभागों में विभक्त है अतः लोक तीन कहलाते हैं। (१) ऊर्ध्वलोक जिसे देवलोक कहतें है, (२) अधोलोक जिसे नरकलोक अथवा पाताल कहते हैं, और (३) मनुष्यलोक अथवा तिर्छालोक अथवा तिर्यक् लोक कहते हैं। अनुक्रम से देवलोक में देवतागण रहते है, अतः स्वर्ग भी इसी का नाम है। अधोलोक में नारकीय जीव निवास करते हैं अतः उसे नरक कहते हैं। ति लोक या तिर्यक् लोक में मनुष्य और तिर्यंच पशु-पक्षी रहते हैं। यह उनका निवासक्षेत्र होने से तिर्छा या तिर्यक लोक के नाम से प्रख्यात है।
समस्त ब्रह्मांड में नवकार का सतत स्मरण -
मनुष्य के लिये तिर्छालोक के असंख्य द्वीप समुद्रों में से मात्र ढाई द्वीप का ही परिमितक्षेत्र है। इससे बाहर मात्र तिर्यंच पशु-पक्षियों का ही निवास है। इस ढाई द्वीप में पन्द्रह कर्मभूमियाँ ही धर्म के मुख्य क्षेत्र है। ५ भरत क्षेत्र, ५ ऐरावत क्षेत्र, ५ महाविदेह क्षेत्र इस प्रकार १५ कर्मभूमियोंके क्षेत्र है। ये ढाई द्वीप और १५ कर्मभूमि आदि के क्षेत्रादि सभी शाश्वत हैं। इन १५ कर्मभूमियोंके क्षेत्रों में धर्म रहता
५ भरत और ५ ऐरावत क्षेत्र समान रूप से चलते हैं, अर्थात् इन दोनों में कालादि सभी दृष्टिकोण से सादृश्यता-समानता रहती है। जिस प्रकार जो कुछ भी भरत क्षेत्र में होता हैं, वैसा ही सब कुछ ऐरावत क्षेत्र में भी होता हैं अर्थात् भरतक्षेत्र में जिस प्रकार काल परिवर्तन होता है, ६ आरे बदलते रहते हैं, उसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र में भी वैसा ही होता है। भरतक्षेत्र में जिस प्रकार २४ तीर्थंकर भगवंत होते हैं, वैसे ही ऐरावत क्षेत्र में भी २४ तीर्थंकर होते हैं। इस प्रकार दोनों ही क्षेत्रों में समानता और सादृश्यता रहती है, सभी भाव समान रुप से रहते हैं।
महाविदेह क्षेत्र इन दोनों से सर्वथा भिन्न ही है। वहाँ काल-परिवर्तन नहीं होता। वहाँ सदैव चौथा आरा ही रहता है अर्थात् महाविदेह क्षेत्र में चौथा आरा सदैव नित्य रहता ही है। अतः वहाँ काल शाश्वत होता है, जब कि यहां काल परिवर्तनशील होता है । वहां तिर्थंकर भगवंत सदैव होते हैं । जब कि यहाँ भरतक्षेत्र में सदैव तीर्थंकर भगवंत नही होते हैं । वहाँ सदा धर्म रहता है और होता ही रहता है जब कि यहाँ भरत क्षेत्र में सदैव धर्म नहीं होता, मात्र तीसरे, चौथे और पाँचवे आरे में ही धर्म होता है। तदुपरान्त छठे आरे में धर्म विच्छिन्न हो जाता है। महाविदेह क्षेत्र में एक