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दूसरी ओर मूर्ति या मंदिर के विरोधिजनों ने जहां भगवान का विरोध किया वहीं अपना प्रभाव बढाना प्रारंभ किया । अपने पूर्वजो अथवा संत-सती आदि के फोटो बडे ही अतिरेक पूर्वक बढाते गए, जो स्थापना निक्षेप में ही न माननेवाले हैं उन्होंने फोटो के रुप में अपनी स्थापना शुरु कर दी और अपनी मान्यता वालों के घर घर अपने फोटो पहुँचा दिये हैं । परिणाम यह निकला कि गृहस्थ लोग अपनेअपने घरों में उन फोटो के समक्ष आरती - धूप-दीप आदि करने लगे और अवसर पर प्राप्त हो जाए अथवा आ जाए तो फल भी रखने लग गए हैं । किन्हीं किन्हीं मूर्ति- मंदिर विरोधियों के यहां तो उनके बडे-बडे पूर्वजों के राजकीय व्यक्तियों की तरह पुतले - प्रतिमाओं आदि की स्थापना भी हो चुकी है और अपने - अपने क्षेत्रों में एक - एक प्रतिमा अथवा स्तुप जैसा बनाकर प्रदर्शन हेतु पुतले बिठा देते हैं । इस प्रकार राजकीय रुप आ गया है । फिर उनके जन्म स्वर्गवास के दिन पानी से साफ-सफाई करके फूल की माला आदि पहनाकर नीचे धूप-दीप करने की प्रथा चल पडी है ।
कोई कोई मूर्ति-मंदिर के विरोधी जन अपनी मृत्यु के पीछे चबुतरा, मंच, स्मारक आदि बनवाकर उस पर चारों ओर अपना नाम आदि पद जोडकर मंत्र स्तुप बनवाकर लिख देते हैं और बीच में संगमरमर के पत्थर में चरण पादुका बनवाकर बिठा देते हैं, फिर उनकी स्वच्छता हेतु उन पर जल-पानी चढाया जाता है, तत्पश्चात् उस पर पुष्पादि भी चढाए जाते हैं और अगरबत्ती करके रखी जाती है । लोग वहाँ आकर घुटनों के बल नत मस्तक होते हैं, बैठकर स्वर्गस्थ संत के नाम की माला फेरते हैं । इस प्रकार एक समाधि स्थल को मंदिर का रूप दिया जाता है । मध्यप्रदेश के एक शहर में ऐसा प्रत्यक्ष देखा गया है ।
ऐसा तो चारों ओर चल पडा है । भगवान तीर्थंकर प्रभु के मंदिर - मूर्तिओं का विरोध करनेवालों ने अपने पूर्वजो- गुरुजनों आदि को भगवान स्वरुप मानकर उनकी पूजा परोक्ष रुप से बढाई है । फोटो की भरमार हो रही है - यह सब किस बात का द्योतक है ? यदि स्थापना निक्षेप का ही विरोध था और पूजा आदि का ही विरोध था तो फिर यह क्या हुआ ? इनको केवल देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्मा पूजा भक्ति में पाप लगता है क्या ? क्या इनको अग्रजों - बडों की टेढी-रीति से पूजा-सम्मान में सिद्धान्त - दोष नहीं लगता है ? यंत्र-तंत्र-मंत्र उनकी पुष्पादि पूजा करने में दोष- पाप क्यों नहीं लगता ? इसके अतिरिक्त मूर्ति मंदिर विरोधी समाज अपने मकान - बंगले दुकान आदि के उद्घाटन के प्रसंग पर स्वामी नारायण की
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