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________________ कैसे कहलाएंगे ? संभव ही नहीं है, अतः जिनका जीवन ही सर्वथा वीतराग भावमय था वे परमात्मा ही वीतराग स्वरुप में विख्यात हैं और उनकी मूर्ति भी वीतराग भाव से परिपूर्ण ही होती है इसीलिए ही उस मूर्ति-प्रतिमा को देखने पर वीतरागता के ही दर्शन होते हैं । वीतरागता की अनुभूति-प्रतिति हो सकती है फिर मूर्ति-प्रतिमा को न मानने का अथवा पूज्य भाव से पूजा न करने का प्रश्न ही कहाँ रहता है ? शास्त्र फरमाते हैं कि - "जिन पडिमा जिन सारीखी' जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा-मूर्ति जिनेश्व के समान ही बताई गई है - तत्स्वरुप में ही माननी है, अतः सादृश्यता का भाव रहना ही चाहिये । मूर्ति और मूर्तिपूजा का विरोध महामिथ्यात्व - उपर्युक्त सिद्धान्त का रहस्यात्मक स्वरुप समझ लेने के बाद और मूर्ति का विज्ञान जान लेने के पश्चात् मूर्ति का विरोध या मूर्ति के दर्शन-पूजन का विरोध करनेवाला जीव अपने घोर मिथ्यात्व का परिचय देता है । मूर्तिपूजा के विषय के शुद्ध शास्त्रीय सिद्धान्त किसी के गले सरलतापूर्वक उतर सकते है अर्थात् सरलता से समझ में आ सकता है । फिर भी पूर्वग्रह - कदाग्रह या दुराग्रह की कुबुद्धि से उसका विरोध करना और इस बुद्धिगम्य सत्य को भी स्वीकार न करना यह उनकी अज्ञानता और मिथ्यामति का ही सूचक प्रतीक है । लोक-व्यवहार में भी फोटो-चित्र आदि व्यक्ति के साक्षात् द्योतक है - ऐसी मान्यता रखते हैं, एक फोटो देखकर कोई भी सहजभाव से पूछ सकता है कि यह फोटो-यह चित्र किसका है ? इस प्रश्न का उत्तर कोई दे सकता है कि यह मेरे पिताजी का फोटो है, कोई कहेगा यह मेरे पुत्र का है, कोई कहेगा यह मेरे भाई का है । ये सभी भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपने-अपने संबंध की अपेक्षा से कहेंगे । परन्तु कोई यह कहने का साहस हरगिज नहीं करेंगे कि यह फोटो और किसीका हो या न हो यह तो कागज का है । क्यों कि उस फोटो के निमित्त व्यक्ति का पूर्ण जीवन आँखों के सामने तैरने लगता है अतः फोटो एवं व्यक्ति एक समान ही गिनी जा सकती है । व्यक्ति चेतनवंत, क्रियान्वित होती है जबकि फोटो-चित्र-मूर्ति-प्रतिमा यह सब अजीब-निष्क्रिय होते हैं । ___दुसरे प्रकार से कागज को फोटो हो या पत्थर की प्रतिमा हो, या काष्ठ लकडे की, रत्न की, फाइबर की हो चाहे जिस किसी द्रव्य की हो तब भी कोई अन्तर नहीं पडता है । रोड पर लगे हुए सिनेमा के पोस्टरों में कागज पर स्थिराकृति दिखाई देती है और वही आकृति चालु सिनेमा में चलती-फिरती प्राणवान्-जीवित लगती 439
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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