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________________ और जैसे शेषशायी श्री विष्णु की मूर्ति है साथ में लक्ष्मीजी है जैसे त्रिनेत्री शंकरजी के साथ पार्वतीजी भी होते ही हैं ठीक वैसे ही क्यो ? कहीं भी महावीर के साथ उनकी पत्नी यशोदा की मूर्ति देखने को मीलती है ? पार्श्वनाथ भगवान के साथ उनकी प्रभावती या हाथ में कोई शस्त्र आदि देखने मीलता है क्या ? चौबीसों ही चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय कुल में जन्मे हुए हैं । शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ जो चक्रवर्ती बने फिर दीक्षा लेकर ध्यानादि करके तीर्थंकर बने थे । क्या उनकी भी प्रतिमा अस्त्र-शस्त्र आयुध सहित कहीं भी दिखाई दी ? नहीं, न तो बनी है और भविष्य में कभी भी बननेवाली भी नहीं है | चौबीसों ही तीर्थंकर अथवा सीमंधर स्वामी आदि बीस विहरमान तीर्थंकर हो तब भी उनकी ऐसी आयुध आदि युक्त मूर्ति कहीं भी देखने को नहीं मिलेगी । प्रतिमा - मूर्ति बनाने के पीछे जो सिद्धान्त कार्य करता है वह यह है कि प्रभु निर्वाण के समय जिस देहाकृति - देहावस्था होते हैं वैसे ही प्रतिमा-मूर्ति बनाई जाती है । उदाहरण के लिये भगवान पार्श्व प्रभु का १०० वर्ष का आयुष्य काल था । जीवन के अंतिम समय में वे सम्मेतशैलशिखर (सम्मेतशिखर) पर पधार गए । ३३ अन्य मुनिगण भी थे । अंत में एक मास के उपवास पूर्क अनशन करके पर्वत पर कायोत्सर्ग मुद्रा खडे-खडे ध्यानस्थ अवस्था में देह का परित्याग करके निर्वाण पाये वे मोक्ष में गये । और भगवान महावीरस्वामी ७२ वर्ष की आयु के अन्तिम भाग में अपापापुरी (पावापुरी) में पधारे । हस्तिपाल राजा की पौषधशाला में अन्तिम चातुर्मास कीया, तब आश्विन माह की १४ चतुर्दशी तथा अमावस्या के दो दीन १६ प्रहर - ४८ घंटो तक अखंड अन्ति देशना देकर रात्रि के अन्तिम भाग में पद्मासनस्थ मुद्रा में स्थिर होकर, देह का परित्याग करके निर्वाण प्राप्त किया था - मोक्ष में पधारे थे । अतः एक कायोत्सर्ग मुद्रावाली तथा पद्मासनमुद्रावाली मूर्तियाँ बनाने का सिद्धान्त है । जिससे प्रभु की अन्तिम अवस्था का ध्यानादि कर सके । चौबीस तीर्थंकर में से एक पार्श्वनाथ भगवान की ही अन्तिम अवस्था कायोत्सर्ग मुद्रावाली थी, बाकी २३ तीर्थंकर भगवंतो पद्मासन मुद्रा में शैलेशीकरण करके निर्वाण पाये अतः ये दो प्रकार की ही मुद्राएँ - अवस्थाएँ होती हैं । सभी तीर्थंकर भगवंतो ने इन दो अवस्था में ही निर्वाण की प्राप्ति की थी, कर रहे हैं और भविष्यकाल में करते रहेंगे अर्थात् अरिहंत परमात्मा कायोत्सर्ग या पद्मासन मुद्रा में ही निर्वाण की प्राप्ति करते हैं । अतः इस सिद्धान्तानुसार ही जैन तीर्थंकरो की मूर्तियाँ इन दो : 437
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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