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________________ कि भगवान महावीर स्वामी के भी २७ भव हुए थे और प्रथम नयसार का भव भगवान ऋषभदेव से भी पर्व महाविदेह क्षेत्र में हुआ था । वहाँ जंगल में उन्होंने मुनिओं के सम्यक्त्व की प्राप्ति की थी और नवकार महामंत्र का स्मरण करते थे । फिर तीसरे भव में मरीचि के रूप में भगवान ऋषभदेव के कुल में उनके पौत्र और भरत चक्रवर्ती के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे । इसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि महावीर स्वामी भगवान ने भी नहीं और आदिश्वर भगवान ने भी नवकार मंत्र की रचना नहीं की थी, क्यों कि उन्होंने तो स्वयं पूर्व के भवों में और प्रथम भव में जब नवकार महामंत्र की उपासना की है तो किस आधार पर हम कहें कि उन्होंने नवकार की रचना की है ? बात बैठती नही हैं । अतः ऐसा कहते हैं कि विगत चौबीसी के किसी न किसी प्रथम तीर्थंकर भगवंत ने नवकार की रचना की होगी । पर्तु उनके विषय में विचार करें तो पुनः उनके भी पूर्व भवों की बात सामने आएगी और उन्होंने पूर्व भवों की साधना कब की होगी ? कितने भव किये होंगे ? क्यों कि यकायक तो तीर्थंकर बने नहीं होंगे। उनके यदि पूर्व भव हुए होंगे तो उन्होंने अपने पूर्व भवों की साधना में क्या नवकार महामंत्र की साधना न की होगी ? किसी न किसी के पास तो दीक्षा अवश्य ली होगी न ? किसी के पास तो सम्यक्त्व की प्राप्ति की होगी न ? इस प्रकार जब सोचते हैं तो अनादिता हमारी दृष्टि सम्मुख आकर खडी होती है । अतः अनादिता अनंतता स्वीकार किये बीना हमारे पास अन्य कोई विकल्प ही नही रहता और यही सत्य मार्ग लगता है। इस प्रकार नवकार महामंत्र की, चौबीशियों की, अरिहंतो की और धर्म की शाश्वतता अनादिता अनंतता सिद्ध होती है । नवकार का अविनाशीपन जगत में ऐसा नियम है कि 'जातस्य ध्रुवो मृत्युः ' ' उत्पन्नस्य नाशोवश्यंभावि' ‘अनुत्पन्नोयमविनाशी’ जो उत्पन्न होता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है, जो उत्पन्न होता है उसका नाश निश्चित है, परन्तु जो अनुत्पन्न है, अर्थात् जिसकी उत्पत्ति ही नहीं है, वह अविनाशी है, वह कदापि नष्ट नहीं होता। इस नियम के अनुसार संसार के अनेक ऐसे उत्पन्नशील पदार्थ है जिनका नाश होता है जिसे हम मृत्यु कहते हैं । अर्थात् जीव द्वारा देह - परित्याग का नाम है मृत्यु । पुद्गल पदार्थ उत्पन्न होते हैं, वस्तुएँ उत्पन्न होती है अतः वे नश्वर है - विनाशशील है, जब कि, आत्मा अनुत्पन्न - · 22
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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