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__इस तीर्थंकर नामकर्म के पुण्यप्रभाव से ही करोडों देवी -देवता प्रभु की सेवा में हाजिर रहते हैं । समवसरण, अष्ट प्रातिहार्यादि की रचना होती है। यद्यपि तीर्थंकर नामकर्म का रसोदय न भी हुआ हो तब भी प्रदेशोदय आदि के कारण भगवान जन्म से ही मति,श्रुत,अवधि ईन तीनों ज्ञान से युक्त होते हैं । मेरु पर्वत पर देवताओं के द्वारा उनका जन्माभिषेक महोत्सव आदि मनाया जाता है । नरकादि में भी दो घटिका (दो घडी )तक सुख -आनंद की लहरें प्रसारित हो जाती हैं, प्रकाश होता है।
धर्मतीर्थ की स्थापना :___पूर्वोपार्जित तीर्थंकर नामकर्म के शुभ उदय से तेरहवे गुणस्थानक पर बिराजे हुए सयोगी केवली अरिहंत भगवान-तीर्थंकर बनते हैं | तीर्थं करोतीति तीर्थंकरः जो तीर्थ प्रवर्तित करे उन्हें तीर्थंकर कहते हैं । यहाँ तीर्थ' शब्द धर्मतीर्थ के अर्थ में है, साधु, साध्वी श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ धर्मतीर्थ स्वरुप है इन धर्मतीर्थ की स्थापना करे वह तीर्थंकर कहलाते हैं । देवताओं द्वारा रचित समवसरण में भगवान-तीर्थंकर बिराजमान होते हैं, और चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं । तीर्थंकर भगवंत वर्ण व्यवस्था नही करते हैं । हिन्दु धर्म में,मनुस्मृति आदि में जैसा बताया गया है तदनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि की जाति व्यवस्था कहलाती है । यह चातुर्वर्ण व्यवस्था उनके मतानुसार उनके भगवान स्थापित करते हैं । इस जाति-व्यवस्था में क्लेश-कषाय,राग-द्वेष की प्रवृत्तियां अधिक होती है, अतःजैन धर्म इस बात को स्वीकार नहीं करता है कि यह वर्ण व्यवस्था भगवान स्थापित करते हैं ।
साधु, साध्वी,श्रावक,श्राविका स्वरूप धर्मतीर्थ की व्यवस्था प्रभु करते हैं यह व्यवस्था जाति या वर्ग के आधार पर नहीं होती है परन्तु गुण के आधार पर होती है। जो पुरूष संसार का सर्वथा त्याग करके अंणगार बनता है उसे साधु कहते हैं। स्त्री संसार का त्याग करे तो वह साध्वी कहलाती है। जो स्त्री-पुरूष सर्वथा संसार नहीं छोड़ सकते हैं वे श्रावक-श्राविका कहलाते हैं। इस प्रकार धर्म करने के न्युनाधिक प्रमाण के आधार पर उन्हें चार विभागों में बाँटा है जो चतुर्विध श्री संघ कहलाता है। साधु के लिये पर्यायवाची दुसरा शब्द श्रमण भी है,और चारों में वह प्रमुख है अतः श्रमण संघ कहलाता है ।
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